घनश्याम सिंह गुप्त को भूल गया छत्तीसगढ़, जिनकी अगुआई में देश को उसका संविधान हिंदी में मिला

प्रफुल्ल ठाकुर/

देश का संविधान मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा गया था. संविधान सभा की पहली ही बैठक में मुद्दा उठा कि सभा की कार्यवाही हिंदी में होनी चाहिए. इसके लिए संविधान का हिंदी अनुवाद करना जरूरी था. देश के चुने हुए विद्वानों को लेकर यह काम शुरू किया गया. हममें से कम ही लोग जानते हैं कि इसका नेतृत्व छत्तीसगढ़ के घनश्याम सिंह गुप्त ने किया था. 2 साल 6 माह की अथक मेहनत के बाद संविधान का हिंदी ड्राफ्ट सदन में प्रस्तुत किया गया. आज देश के हिंदी भाषी लोग अगर अपनी भाषा में संविधान को पढ़ पा रहे हैं तो इसके पीछे गुप्तजी का महत्वपूर्ण योगदान है.

प्रदेश के लिए यह गर्व की बात है कि देश के संविधान निर्माण में छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. प्रदेश के गुरु अगमदास, ठाकुर बैरिस्टर छेदीलाल, पं. रविशंकर शुक्ल, किशोरी मोहन त्रिपाठी, रामप्रसाद पोटई एवं घनश्याम सिंह गुप्त संविधान सभा के सदस्य थे. इसमें एक और बड़ी गर्व की बात यह है कि देश के संविधान को जन-जन तक हिंदी में पहुंचाने में बड़ी भूमिका घनश्याम सिंह गुप्त की है. वे संविधान सभा की हिंदी समिति और संविधान की हिंदी अनुवाद विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष थे. उनकी अगुवाई में 41 सदस्यीय टीम ने संविधान का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया. 24 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान की हिंदी प्रति पर 282, जबकि अंग्रेजी प्रति पर 278 हस्ताक्षर किए गए.

फाइल फोटो

भारत में 9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक हुई. उसी दिन श्री रघुनाथ विष्णु धूलेकर ने आग्रह किया कि संविधान सभा की कार्यवाही हिंदी में होनी चाहिए. इसके बाद 1947 में पहली अनुवाद समिति बनी. इसमें छत्तीसगढ़ के घनश्याम सिंह गुप्त को शामिल किया गया. श्री गुप्त के अलावा समिति में पं. कमलापति त्रिपाठी, डॉ. रघुवीर, श्री हरिभाऊ उपाध्याय, डॉ. नगेंद्र, श्री बालाकृष्ण शामिल रहे. 15 मार्च 1949 को दूसरी अनुवाद समिति में श्री गुप्त को अध्यक्ष बनाया गया. इस समिति में भाषाविद् और बाद में बंगाल विधान परिषद के अध्यक्ष बने डॉ. सुनीत कुमार चटर्जी, हिंदी के विद्वान लेखक और इतिहासकार राहुल सांस्कृत्यायन, इतिहासकार पं. जयचंद्र विद्यालंकर, भाषाविद् मोटुरि सत्यानारायण, मराठी कोशकार, यशवंत रामकृष्ण दाते, न्या. डब्ल्यू आर पुराणिक, प्रो. मुजीब बालकृष्ण आदि शामिल किए गए.डॉ. राजेंद्र प्रसाद की इच्छा के अनुरूप 2 वर्ष 6 माह की अवधि में घनश्याम सिंह गुप्त के नेतृत्व में संविधान का हिन्दी ड्राफ्ट सदन में प्रस्तुत कर दिया गया.

मंगलवार 24 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान सभा की कार्यवाही पुस्तिका बताती है कि भारतीय संविधान सभा की बैठक सुबह 11 बजे शुरू हुई और कुछ सवाल जवाब व वक्तव्य के बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा-‘मैं श्री घनश्याम सिंह गुप्त से निवेदन करता हूं कि वे हिंदी अनुवाद को मुझे दें ताकि उसे रस्मी तौर पर सभा के समक्ष रखूं और उनका प्रमाणीकरण कर दूं.’ इसके बाद घनश्याम सिंह गुप्त ने अध्यक्ष को हिंदी अनुवाद की प्रतियां सौंपी और अध्यक्ष ने उन पर अपने हस्ताक्षर किए. संविधान के हिन्दी अनुवाद के लिए श्री गुप्त ने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी थी. अनुवाद समिति के विद्वान सदस्यों के बीच तालमेल बैठाते हुए दुरूह और कठिन संवैधानिक शब्दों का अनुवाद आसान नहीं था. एक-एक शब्दों के सटीक अनुवाद में विद्वानों नें कई-कई दिन बिताये तब जाकर संविधान का वह स्वरूप सामने आया जिसे भारत की बहुसंख्यक जनता पढ़ और समझ सके.

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जीवन यात्रा

श्री गुप्त का जन्म 22 दिसंबर 1885 को दुर्ग में हुआ. उनके पिता गेंदासिंह गुप्त जमींदार थे. श्री गुप्त की प्राथमिक शिक्षा दुर्ग एवं हाई स्कूल की शिक्षा रायपुर में हुई. जबलपुर के राबर्टसन कॉलेज से 1906 में उन्होंने गोल्ड मैडल के साथ बीएससी की डिग्री ली. नेतृत्व की क्षमता उनके अंदर छात्र जीवन से ही थी. कॉलेज के समय लंबे समय तक चली हड़ताल का नेतृत्व उन्होंने किया था. वे हॉकी के अच्छे खिलाड़ी थे और कॉलेज हॉकी टीम के कैप्टन भी. 1908 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एलएलबी की उपाधि प्राप्त की. इसके बाद गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में फिजिक्स के प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं दीं, लेकिन उनका मन वहां नहीं लगा. दो साल बाद 1910 में वे दुर्ग लौट आए और वकालत शुरू की. इसी दौरान वे आजादी की लड़ाई से जुड़े और पंडित जवाहल लाल नेहरू और अन्य नेताओं के संपर्क में आए. पढ़ाई कर लौटने के बाद वे राजनीति में सक्रिय हुए. 1915 में वे मध्य प्रांत एवं बरार के प्रांतीय परिषद के सदस्य चुने गए. 1921 में महात्मा गांधी के अह्वान पर उन्होंने वकालत छोड़ दी. 1923 से 1926 तक सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार विधानसभा के निर्विरोध सदस्य निर्वाचित हुए. 1927-1930 के कार्यकाल में वे प्रदेश विधान सभा के कांग्रेस दल के नेता चुने गए. इस बीच 1926 में दुर्ग नगर निगम के अध्यक्ष भी रहे. 1930 में वे दिल्ली के सेंट्रल असेंबली सदस्य के चुनाव में डॉ. हरिसिंह गौर को हराकर सदस्य निर्वाचित हुए. इस दौरान केंद्र में छत्तीसगढ़ की दमदार उपस्थिति दर्ज होती रही. 1937 में वे संजारी बालोद से सीपी एंड बरार एसेंबली के चुनाव में जीतकर मेंबर बने, जहां वे मध्य प्रांत और बरार विधानसभा के अध्यक्ष मनोनीत हुए. वे 1952 तक मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष बने रहे. अंग्रेजी शासन काल में भी वे विधानसभा की कार्यवाही हिंदी और मराठी में कराते थे. लंबे समय तक विधानसभा के अध्यक्ष और विधिशास्त्र के ज्ञाता होने के कारण उन्हें ‘विधानपुरुष’ के नाम से भी जाना जाता है.

उनके अनुरोध पर गांधी-नेहरू आए दुर्ग

श्री गुप्त के अनुरोध पर महात्मा गांधी और पं. जवाहर लाल नेहरू ने दुर्ग की यात्रा की. 1933 में जब गांधी जी दुर्ग आए तो गुप्त जी के घर पर ठहरे. गांधीजी को उन्होंने निगम द्वारा संचालित स्कूल का भ्रमण कराया. इस स्कूल में विद्यार्थी बिना किसी भेदभाव के एक टाटपट्टी पर साथ बैठकर पढ़ते थे. इससे गांधीजी बड़े प्रसन्न हुए. विद्यालय भ्रमण के बाद मोतीलाल बावली परिसर में शाम को एक विशाल सभा को गांधीजी ने संबोधित किया. स्वतंत्रता आंदोलन के समय वे कई बार गिरफ्तार हुए और कई बार लंबे समय तक जेल में भी रहे.

कानूनों का ड्राफ्ट किया तैयार

श्री गुप्त ने विधिवेत्ता और आईसीएस वीएन राव के साथ मिलकर सांविधिक कोड के पुनरीक्षण में सहयोग दिया. केंद्रीय संसद में इस दौरान श्री गुप्त ने गवर्नमेंट आॅफ इंडिया एक्ट सहित कई महत्वपूर्ण कानूनों का ड्राफ्ट तैयार किया. इसमें माल बिक्री अधिनियम, भागीदारी अधिनियम, बाल श्रम निषेध अधिनियम, भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, गन्ना अधिनियम, विमान अधिनियम, पेट्रोलियम अधिनियम, मजदूरी भुगतान अधिनियम, आर्य विवाह मान्यता अधिनियम, बीमा अधिनियम आदि प्रमुख है. देश-विदेश के कानूनों का अध्ययन कर भारत के अनुरूप उक्त कानूनों का ड्राफ्ट स्वयं घनश्याम सिंह गुप्त ने तैयार किया. ये कानून संसद में चर्चा के उपरांत देश में लागू किए गए.

जब डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने मांगी माफी

श्री गुप्त संविधान सभा में कितने स्पष्टवादी एवं मुखर थे इसका अंदाजा 25 मई 1949 की कार्यवाही से लगाया जा सकता है. उस दिन सदन के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद सदन की कार्यवाही प्रारंभ होने के 10 मिनट देर से पहुंचे. उनके सदन में आते ही गुप्त जी ने कहा कि हम सब अपना घर-द्वार, परिवार, रोजी-रोजगार छोड़कर इस पुनीत कार्य के लिए अपना पल-पल दे रहे हैं, हमें समय का पाबंद होना चाहिए. इस पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा कि ‘मैं यहां आ गया था, किंतु सदन में आने में देरी हुई, इसके लिए मैं सदन से माफी मांगता हूं.’

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पदों और कार्यों की लंबी सूची

श्री गुप्त के पद और कार्यों की लंबी सूची है. उन्होंने 1938-40 में हैदराबाद आर्य समाज आंदोलन का नेतृत्व किया. इसके अलावा 1944-47 में सिंध प्रदेश में सत्यार्थ प्रकाश के बैन के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व किया. 1953-55 में भारत सरकार की ओर से उन्हें जस्टिस एमबी नियोगी कमेटी का सदस्य बनाया गया. यह कमेटी मिशनरीज के द्वारा किए जा रहे धर्मांतरण के क्रियाकलापों की जांच के लिए बनाई गई थी. उन्होंने 1957 में पंजाब सूबा हिंदी आंदोलन का भी नेतृत्व किया. वे राजभाषा आयोग, भारत सरकार के भी सदस्य रहे. उन्होंने 1963 में राजभाषा अधिनियनम का ड्राफ्ट तैयार किया. वे आॅल इंडिया बैकवर्ड कम्युनिटी के पूर्णकालिक सदस्य व अध्यक्ष रहे. 1961-1964 तक आॅफिशियल लैंग्वेज लेजिस्लेटिव कमीशन भारत सरकार के सदस्य रहे. इस दौरान उन्होंने आधिकारिक रूप से मूल केंद्रीय कानूनों को हिंदी में अनुवाद किया. वे एक्सपर्ट ट्रांसलेशन कमेटी, भारत सरकार के भी सदस्य रहे, जो तकनीकी शब्दों के हिंदीकरण के लिए कार्य करती है. वे मीडिया जगत में हिंदुस्तान समाचार राष्ट्रीय न्यूज एजेंसी के प्रथम अध्यक्ष रहे. साथ ही रिहैबिलिटेशन फाइनेंसियल एडमिनिस्ट्रेशन कमीशन, भारत सरकार के भी दस साल तक स्थाई चेयरमेन रहे. कमीशन पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों के आर्थिक पुनर्वास से संबंधित था. वे सार्वदेशिक भाषा स्वतंत्र समिति के अध्यक्ष रहे. विलेज बोर्ड आफ रायपुर डिवीजन के भी 1955-57 तक चेयरमेन रहे. वे आर्य प्रतिनिधि सभा के सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार प्रदेश के लगभग 30 वर्ष तक अध्यक्ष रहे.

स्त्री शिक्षा पर दिया विशेष जोर

साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यों में भी श्री गुप्त की बेहद रुचि रही. वे राष्ट्रभाषा हिंदी के कट्टर समर्थक थे. उन्होंने ‘महाराणा प्रताप सिंह’, ‘अफजल खां की तलवार’, ‘मेरे संस्मरण’, ‘शिवाजी का बघनखा’, ‘गांधीजी की नजर में हिंदी’ आदि रचनाएं लिखी हैं. स्वाधीनता संग्राम के दिनों में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध कविता पढ़ने के आरोप में श्री गुप्त को जेल की सजा हुई थी. श्री गुप्त आजीवन शिक्षा, विशेषकर स्री शिक्षा के प्रचार-प्रसार, गरीबी, धर्मांतरण और छुआछूत उन्मूलन के कार्यों में तन-मन-धन लगाकार कार्य करते रहे. उन्होंने स्वयं के लाखों रुपए खर्च कर क्षेत्र में अनेक स्कूल और कन्या महाविद्यालयों की स्थापना की. उनके प्रयासों से ही आर्यसमाजी पद्धति से विवाह को मान्यता मिली. 13 जून 1976 को उनका निधन हुआ. इतिहास के पन्नों में श्री गुप्त के अवदानों का उल्लेख है, लेकिन प्रदेश में उन्हें वह सम्मान अभी नहीं मिल पाया है, जिसके वे हकदार हैं.
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