बैगा आदिवासियों के नाम किया जीवन

दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर प्रभुदत्त खेरा 35 वर्षों तक अचानकमार के जंगल में रहे. शैक्षणिक भ्रमण पर लमनी आए प्रोफेसर खेरा ने बैगा आदिवासियों की जिंदगी को करीब से देखा और फिर यहीं रहने का मन बना लिया. नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें महानगर की चकाचौंध नहीं भाई और वे सब कुछ छोड़कर आदिवासियों के बीच जंगल में आकर बस गए. उनका पूरा जीवन आदिवासियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक स्तर को ऊपर उठाने में बीता. उन्होंने अपनी अंतिम सांसें भी यहीं ली. उन्हें अचानकमार के जंगल और स्थानीय निवासियों से बहुत प्रेम था. उसी तरह का प्रेम वहां के निवासी भी उनसे करते थे. जिस तरह उनके मन में अचानकमार के आदिवासी थे, उसी तरह आदिवासियों के मन में ‘दिल्ली वाले बाबा’ यानी प्रोफेसर खेरा थे.

प्रोफेसर खेरा का जन्म अविभाजित भारत के लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) में 13 अप्रैल 1928 को हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा पंजाब के झंग (वर्तमान पाकिस्तान) में हुई. देश के बंटवारे के वक्त वे पाकिस्तान से भारत आ गए. उन्होंने 1948-49 में दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए और फिर समाजशास्त्र विषय से एमए और गणित में एमएससी किया. एमलिब करने के साथ ही उन्होंने 1971 में दिल्ली विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. 1971 में ही दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में बतौर रीडर काम किया. इस बीच उनके कई शोधपत्र प्रकाशित हुए. उन्होंने एनसीआरटीई में भी कुछ वक्त तक काम किया. वे आधा दर्जन छात्रों के पीएचडी मार्गदर्शक भी रहे.

1983 में प्रोफेसर खेरा दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के छात्रों का एक दल लेकर छत्तीसगढ़ के अचानकमार टाईगर रिजर्व स्थित लमनी ग्राम पहुंचे. दल का उद्देश्य था, आदिवासियों के रहन-सहन व सामाजिक परिवेश को करीब से देखना. अध्ययन के बाद आदिवासियों के जीवन स्तर में सुधार को लेकर एक रिपोर्ट केंद्र सरकार को पेश करनी थी. आदिवासियों की स्थिति देखकर प्रोफेसर खेरा ने यहीं रुकने का मन बना लिया. साथ आए छात्रों को एक हफ्ते की छुट्टी की अर्जी देकर लौटा दिया. कुछ समय बाद प्रोफेसर खेरा ने खुद को इन्हीं जंगलों के नाम कर दिया. लमनी में उन्होंने बैगा जनजाति के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और उनके सामाजिक स्तर को बढ़ाने का काम किया. आदिवासियों के बीच वे ‘दिल्ली वाले बाबा’ के नाम से जाने जाते थे. स्थानीय आदिवासियों के हृदय में उनका विशेष स्थान था. वे लमनी से 18 किमी दूर छपरवा में एक हाईस्कूल का संचालन करते थे. इस स्कूल से कई बच्चे पढ़-लिखकर आगे बढ़े हैं. यही नहीं, उस स्कूल से पढ़े तीन विद्यार्थी स्कूल में ही शिक्षक के तौर पर कार्यरत हैं. उनका कहना था कि बाहर से आने वाले शिक्षक नियमित नहीं होते, वे स्थानीय बच्चे और परिवेश को भी नहीं समझते, लेकिन ये शिक्षक जो यहीं पढ़े हैं, वह ज्यादा बेहतर हैं. प्रोफेसर खेरा स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाते थे. अपनी पेंशन से स्कूल में कई जरूरी खर्चे वे पूरा करते थे. यहां तक की उसी पैसे से हाईस्कूल के छात्र-छात्राओं को मिड डे मील भी खिलाते थे. उन्होंने 2014 में आवश्यकता देखते हुए अभयारण्य शिक्षण समिति का गठन किया. समिति के माध्यम से ही स्कूल का संचालन किया जा रहा है. प्रोफेसर खेरा स्थानीय बैगाओं के भविष्य और बाघ अभयारण्य होने के कारण बैगाओं के विस्थापन को लेकर काफी चिंतित थे. इसे लेकर वे सरकार को पत्र भी लिखते रहते हैं.

लंबी बीमारी के बाद 23 सितंबर 2019 को प्रोफेसर खेरा का निधन हो गया. बिलासपुर के अपोलो अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांसें लीं. प्रोफेसर खेरा ने अपनी पूरी संपत्ति आदिवासी बैगा बच्चों के नाम कर दी. इसमें उनका संचित निधि 42 लाख रुपए, उनकी पूरी पेंशन, उनको मिले पुरस्कार की राशि आदि शामिल है. उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा में कहा कि इस राशि से एक लाख रुपए लेकर किसी गुरुद्वारे में लंगर करवा देना. प्रोफेसर खेरा आदिवासियों के बीच इतने भरोसेमंद और लोकप्रिय थे कि आदिवासी न केवल उनकी बातों को अक्षरश: मानते थे, वरन उनकी सीख को गांठ बांधकर रख लेते थे. शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक जागरूकता के लिए उन्होंने जो कार्य किया वह अतुलनीय है. बैगा जनजाति के बीच उनके द्वारा किए गए कार्यों को हमेशा याद रखा जाएगा. उनके निधन से स्थानीय आदिवासियों और खासकर बच्चों में बेहद मायूसी है. उन्होंने अपना एक सच्चा मार्गदर्शक और गुरु हमेशा के लिए खो दिया.

लमनी में लगी प्रो. खेरा की प्रतिमा

किताबों से ज्यादा फील्ड वर्क को देते थे महत्व

प्रोफेसर खेरा किताबी ज्ञान से ज्यादा फील्डवर्क को महत्व देते थे. विश्वविद्यालय में अध्यायपन के दौरान वे यात्राएं भी खूब करते थे. देश के अलग-अलग हिस्सों से स्थानीय लोगों की कहानियां एकत्रित करते थे और उन कहानियों को अपनी कक्षाओं में सुनाया करते थे. उनका मानना था कि समाजशास्त्र कक्षा में बैठकर सीखने की चीज नहीं है, उसे समाज के बीच रहकर ही सीखा जा सकता है. उन्होंने अपने अनुभवों पर कोई किताब नहीं लिखी. उनकी यात्राओं का एकमात्र उद्देश्य समाज की विविधता को समझना था. प्रोफेसर खेरा का लालन-पालन पंजाब प्रांत में हुआ था, इसलिए गुरुमुखी और उर्दू दोनों का बराबर ज्ञान था. वे फारसी में भी समान रूप से पारंगत थे. उन्हें शास्त्रीय परंपराओं का भी बेहद ज्ञान था और वे उस पर घंटों बात कर सकते थे.

इस छोटे से कच्चे घर में रहते थे प्रोफेसर खेरा

सम्मान-पुरस्कार में नहीं करते थे यकीन

प्रोफेसर खेरा सम्मान और पुरस्कारों में यकीन नहीं करते थे. वे इन्हें यह कहकर ठुकरा दिया करते थे कि वो यह काम वाहवाही के लिए नहीं करते. बड़े मान-मनौवल के बाद 2017 में उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार का प्रथम गांधी स्मृति सम्मान ग्रहण किया था. सम्मान में प्राप्त 5 लाख की राशि बैगा बच्चों के कल्याण के लिए अभयारण्य शिक्षण समिति को दे दिया था. इसी दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने छपरवा में संचालित स्कूल के शासकीयकरण की घोषणा की थी. स्कूल के विस्तार के लिए 20 लाख रुपए राज्य शासन की ओर से प्रदान किए गए थे. वर्तमान सरकार में स्कूल के सात शिक्षकों को स्थाई कर दिया गया है.

आधे बिस्तर में रहती थी किताबें, आधे में सोते थे

प्रोफेसर खेरा ग्राम लमनी में एक झोपड़ीनुमा कच्चे मकान में रहते थे. जीवनयापन के बेहद कम सामान उनके पास थे, परंतु किताबें बहुत सारी थीं, जिन्हें वे खाली वक्त में पढ़ते रहते थे. उनके बिस्तर का आधा भाग किताबों से भरा होता था और आधे पर वे सोते थे. वे लमनी से छपरवा प्रतिदिन स्कूल आना-जाना करते थे. लमनी से छपरवा की दूरी 18 किलोमीटर है. वे प्रतिदिन सुबह की बस में छपरवा जाते और शाम की बस से लौट आते थे. वे सिद्धांत से गांधीवादी थे और हमेशा खादी के कपड़े ही पहनते थे. उनके कंधे पर हमेशा एक झोला लटकता रहता था, जिसमें बच्चों के लिए बिस्किट और टॉफियां होती थीं. उन्हें बच्चों से खास लगाव था. स्कूल के लौटने के बाद वे रोज शाम लमनी नाका के पास बैठकर बच्चों को खाने-पीने का सामान बांटा करते थे. वे अपने थैले में सुई-धागा लेकर भी चलते थे और बैगा बच्चों के फटे कपड़ों को खुद ही सिल दिया करते थे. 93 साल की उम्र में उनकाे चश्मा तक नहीं लगा था. उन्हें बीपी, शुगर या अन्य कोई बीमारी नहीं थी. हालांकि बढ़ती उम्र के कारण उनका स्वास्थ लगातार गिरता जा रहा था.

एक कमरे में रखा प्रोफेसर खेरा का सामान

एक कमरे में रखा है प्रोफेसर खेरा का सामान

प्रोफेसर खेरा के निधन के बाद उनका सामान उनके कच्चे घर से हटाकर लमनी रेस्ट हाउस के बगल के एक पक्के कमरे में रखवा दिया गया है, जिसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है. हालांकि सामान बहुत ज्यादा नहीं है, फिर भी उसे सुरक्षित तरीके से नहीं रखा गया है. उनका कुल सामान सात-आठ बोरियों में समा गया है. उनमें से दो बोरियों में उनकी किताबें और डायरियां हैं. कमरे में उनके कपड़े, छाता, खाना बनाने का स्टोव, चटाई, प्लास्टिक की दो बाल्टियां, गिलास, दवाइयों की शीशियां और कुछ सम्मान पत्र उनके ही दो तखत के ऊपर और नीचे बिखते हुए पड़े हैं. सभी सामान के ऊपर धूल जम गई है. कमरे में उनका राशन कार्ड भी खुले में पड़ा हुआ है, जिसके मुताबिक वे हर महीने चावल, नमक और मिट्टी का तेल लिया करते थे.

क्या कहते थे प्रोफेसर खेरा

‘वनवासियों से हमें सीखना चाहिए. वन, वनौषधियों और मिट्टी को लेकर जितना वनवासी जानते हैं, उतना ज्ञान किसी के पास नहीं है.’

‘हम अनेकता में एकता की बात जब करते हैं तो फिर वनवासियों को उनके मूल स्वरूप में क्यों नहीं छोड़ना चाहते? वो अपनी ज्ञान बढ़ाने के लिए खुद को आजाद रखना चाहते हैं. उन्हें शहरी संस्कृति से जोड़ना अच्छी बात नहीं है. ये निहायत स्वाभिमानी और संतोषी होते हैं, इन्हें उजाड़ने की नहीं इनसे सीखने की जरूरत है.’

‘वनवासी स्टेटलेस सोसाइटी में यकीन करते हैं. साल 1900 के भीषण अकाल में भी उन्होंने सरकारी मदद के बगैर ही जीवन गुजार दिया था, स्वाभिमानी लोग हैं, इनकी चाहत बस वन आजादी की है. ये जंगल में खुश रहते है और जंगलों को संरक्षित रखते हैं. ये वनसंस्कृति के हिमायती है, इनकी संस्कृति बिना मुद्रा के भी खुश रहने के लिए प्रेरित करती है.’

‘आप समाजिक विज्ञान कक्षा के अंदर नहीं पढ़ा सकते और मैं भी यहां कोई समाज सेवा करने नहीं आया हूं, बल्कि मैं इस बैगा आदिवासी समाज से बहुत कुछ निरंतर सीख रहा हूं. यहां आकर मेरा पुनर्जन्म हुआ है.’

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