गांधी बनाम गोडसे या गांधी संग गोडसे

मनोज व्यास/

ड़क पर अनमने ढंग के चला जा रहा था तभी मेरी नजर सामने चल रही एक बूढ़ी काया पर पड़ी. ये क्या..मैं तो चौंक गया. ये तो महात्मा गांधी हैं. लेकिन ये बापू किसका हाथ पकड़कर चल रहे हैं.? अरे ये तो नाथूराम गोडसे है. बापू अपने हत्यारे का हाथ पकड़कर कहां जा रहे हैं… मेरी उत्सुकता अचानक बढ़ गई. मैं भी पीछे पीछे चलने लगा. गोडसे का हाथ पकड़े बापू सीधे चले जा रहे थे. गोडसे के चेहरे पर अपराध बोध है, लेकिन जैसे भीतर एक अजीब का सुकून भी महसूस हो रहा है, जो गलती करने के बाद जब माता-पिता बच्चे को पीट देते हैं, फिर रोते बच्चे को गले लगाते हैं तो उस बच्चे में दिखता है.

अचानक बापू मुड़े और शास्त्री जी की प्रतिमा के पास पहुंच गए. शास्त्री जी ने तत्काल उठकर बापू का अभिवादन किया. उन्हें जन्मदिन की बधाई दी. बापू ने भी शास्त्रीजी को जन्मदिन की बधाई दी और आभार जताया.

लेकिन तभी शास्त्रीजी की नजर पीछे नाथूराम पर पड़ी तो वे चौंक गए. माथे पर बल पड़ा. बापू भांप गए.

उन्होंने पूछा- इसमें चौकने की बात क्या है?

बापू आप हत्यारे का हाथ पकड़कर चल रहे, शास्त्रीजी ने कहा.

हां, तो इसमें बुरा क्या है, गांधीजी ने सवाल किया.

पर बापू जिसने आपको मारा, उसके लिए हम सभी आपके चाहने वाले आक्रोशित हैं, उसे अपराधी मान रहे और आप ही उसका हाथ थामे चल रहे?

मैंने तो कभी नहीं कहा कि अपराधी को मारो, दूर रखो. मैंने तो यही सिखाया न कि ‘घृणा अपराध से करो, अपराधी से नहीं’. बापू ने फिर शांत चित्त से कहा.

शास्त्रीजी थोड़े उद्वेलित होकर बोले- बापू ये क्या बात हुई. हम सब आपके फॉलोवर हैं. ‘सबको सन्मति दे भगवान’…आपका भजन गा रहे और ये क्या…आप ही अपने हत्यारे को लेकर साथ चल रहे. ऐसा लग रहा, जैसे आप हमारे नहीं अपने हत्यारे के साथ हैं. हम लोग क्या समझें इसे. देश के इतने सारे लोग जो आपको भगवान की तरह पूजते हैं, आपको राष्ट्र का पिता मानते हैं, वे क्या सोचेंगे. आपको उनकी भावनाओं के बारे में पहले सोचना चाहिए.

मैंने कभी अपने लिए नहीं सोचा, जो भी सोचा वो सर्व जन हिताय और सर्व जन सुखाय ही सोचा. बापू ने कहा.

फिर जो दिख रहा है, उससे तो आपकी सर्व जन हिताय फिलॉसफी का क्या मतलब निकाला जाए. आपके इस नए आदर्श ने तो हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचाई है. शास्त्रीजी ने जैसे गांधीजी पर गुस्सा उतारते हुए पूछा.

और मेरी भावनाओं का क्या? बापू ने तपाक से लेकिन मुस्कुराते हुए पूछा.

क्या मैंने जो सिखाया, उसे सबने आत्मसात कर लिया?

क्या सब लोग समाज की खुशहाली के लिए सोच रहे?

क्या सबने जाति-धर्म में एक दूसरे को बांटना छोड़ दिया?

क्या मैंने जिस शासन व्यवस्था की कल्पना की थी, उसकी स्थापना हो गई है?

बापू ने तो जैसे सवालों की झड़ी लगा दी.

शास्त्रीजी ने कुछ बोलना चाहा, लेकिन बेचैनी से एक लंबी सांस लेकर चुप रह गए.

बापू ने बोलना जारी रखा…मेरी जयंती पर आज इतने आयोजन हो रहे, लेकिन मैं खुश नहीं हूं.

आज सारे आयोजन हो तो मेरे नाम से रहे हैं, लेकिन मैं कहीं नहीं हूं.

ये गांधी को याद करने का नहीं, बल्कि इस (गोडसे की ओर हाथ दिखाकर) इसको याद करने का दिन बनकर रह गया है.

मैं अपने हत्यारे को साथ लेकर इसलिए चल रहा, क्योंकि मुझे आज अपने सिद्धांतों और आदर्शों को परखना पड़ रहा है. सब उल्टा समझते हैं. गोडसे के मारने से मेरी काया मरी, लेकिन विचार आज भी जीवित हैं, जबकि उल्टा है, गोडसे ने मुझे मारकर मेरे नाम को अमर कर दिया, लेकिन लोग उसके आदर्शों को मान रहे. जो गोडसे के विरोध में हैं, वे भी गोडसे की विचारधारा से बाहर नहीं निकल पा रहे. गोडसे ने मुझे मारा, लेकिन मैंने तो बदला लेने नहीं कहा.

मैंने तो उसी समय गोडसे को माफ कर दिया, जब मेरे मरने की खबर सुनकर पूरा देश रो पड़ा था. सब रो रहे थे, लेकिन मैं मुस्कुरा रहा था. ये सोचकर कि आज देश में इतने सारे लोग मेरे अपने हैं, मेरी राह पर चलने वाले हैं. मैं जिस देश जिस समाज की कल्पना करता था, वो अब पूरा हो जाएगा.

मैंने तो यह भी सोच लिया था कि मेरे मरने के बाद जिस तरह लोग दुखी हैं, मेरी आदर्शों की बात कर रहे हैं तो मुझे पहले ही मर जाना था. मैं खुद ही अपनी सुपारी दे देता, जिससे मेरी भावनाएं कई साल पहले लोगों के मन में समा जातीं.
लेकिन मैं गलत था.

आज कुछ लोग मेरी जयंती पर गोडसे को याद कर रहे और जिन पर गोडसे की विचारधारा का आरोप है, वे मुझे याद कर रहे.
क्या यह फर्क तुम्हें नजर नहीं आता शास्त्री.

बापू के इस सवाल पर शास्त्रीजी खामोश रह गए. उनकी आंखों के एक कोर से आंसुओं की कुछ बूंदें गिर गई. ऐसा लग रहा था जैसे फफककर रो देंगे और अपनी भावनाओं को दबाने के लिए दांतों को भींच रहे हैं.

बापू उन्हें देखकर समझ गए…

उन्होंने पलटकर गोडसे की ओर देखा…

गोडसे तो कब से अपराध बोध से धंसा बैठा था. लेकिन बापू से आंख मिलने पर जैसे किसी ऊर्जा का संचार हुआ और होंठ थरथराए और कहा- बापू मैं फिर से बंदूक उठाना चाहता हूं.

बापू चौंक गए…गोडसे क्या तुम मुझे फिर मारना चाहते हो…बापू ने पूछा.

नहीं बापू…इस बार मैं खुद को मारना चाहता हूं. जिस दिन गोडसे मर जाएगा, उसका नाम मर जाएगा, तब शायद लोगों को सिर्फ बापू के आदर्श याद रह जाएंगे. फिर गांधी और गोडसे के नाम पर राजनीति नहीं होगी…उस दिन मैंने जो पाप किया था, उसके पश्चाताप का इससे बढ़िया उपाय नहीं हो सकता.

गांधीजी ने गोडसे की ओर देखा…शायद भीतर से वे सहमत थे, लेकिन ‘अहिंसा परमोधर्म:’ का उनका आदर्श अचानक सामने खड़ा हो गया. बापू चुप रह गए. शास्त्रीजी की आंखों के कोर से फिर कुछ बूंदें निकल कर बह गईं.

गोडसे अपने अपराध बोध से जैसे धंसता जा रहा था…
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