गजानन माधव मुक्तिबोध की पांच प्रमुख कविताएं…

छत्तीसगढ़ गाथा डेस्क/

हिन्दी साहित्य के प्रमुख कवि, आलोचक, निबंधकार, कहानीकार तथा उपन्यासकार गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर 1917 को श्योपुर (शिवपुरी) जिला मुरैना, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में ह७ुआ. पिता का नाम माधवराव और माता का नाम पार्वती बाई था. पिता पुलिस में अधिकारी थे तो बचपन बड़े ही ठाठ-बाट में बीता. पर बाद में इन्हें जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ा.

साल 1953 में मुक्तिबोध ने साहित्य लेखन शुरू किया. मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे. मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार ‘तार सप्तक’ के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया. साल 1940 से 1958 तक उन्होंने कई छोटी-बड़ी नौकरियां कीं. शिक्षक के साथ ही पत्रकार व संपादक की भी भूमिका निभाई. 1958 से दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव में वे प्राध्यापक नियुक्त हुए.

मुक्तिबोध की रुचि अध्ययन-अध्यापन, पत्रकारिता, समसामयिक राजनीतिक एवं साहित्य के विषयों पर लेखन में थी. 1942 के आसपास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके और शुजालपुर में रहते हुए उनकी वामपंथी चेतना मजबूत हुई. मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु माना जाता है. आजीवन गरीबी से लड़ते हुए और रोगों का मुकाबला करते हुए 11 सितम्बर, 1964 को नई दिल्ली में मुक्तिबोध ने अंतिम सांस ली. पर उनकी कविताएं लोगों की सांसों में बसी हुई हैं.

पांच कविताएं…

1.
सहर्ष स्वीकारा है

जिंदगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है

गरबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़्ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है, मौलिक है

इसलिए के पल-पल में
जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है
संवेदन तुम्हारा है!

जाने क्या रिश्ता है, जाने क्या नाता है
जितना भी उड़ेलता हूं,भर-भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम

मुसकाता चांद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!

सचमुच मुझे दंड दो कि भूलूं मैं भूलूं मैं
तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या
शरीर पर,चेहरे पर, अंतर में पा लूं मैं
झेलूं मै, उसी में नहा लूं मैं

इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है
नहीं सहा जाता है

ममता के बादल की मंडराती कोमलताझ्र
भीतर पिराती है

कमजोर और अक्षम अब हो गई है आत्मा यह
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है
बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नही होती है!

सचमुच मुझे दंड दो कि हो जाऊं
पाताली अंधेरे की गुहाओं में विवरों में
धुएं के बाद्लों में
बिल्कुल मैं लापता!

लापता कि वहां भी तो तुम्हारा ही सहारा है!
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
या मेरा जो होता-सा लगता है, होता-सा संभव है
सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है

अब तक तो जिंदगी में जो कुछ था, जो कुछ है
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है

2.
अंधेरे में…

जिÞन्दगी के…
कमरों में अँधेरे
लगाता है चक्कर
कोई एक लगातार;
आवाज पैरों की देती है सुनाई
बार-बार….बार-बार,
वह नहीं दीखता… नहीं ही दीखता,
किन्तु वह रहा घूम
तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा
अस्तित्व जनाता
अनिवार कोई एक,
और मेरे हृदय की धक-धक
पूछती है–वह कौन
सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !
इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से
फूले हुए पलस्तर,
खिरती है चूने-भरी रेत
खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह–
खुद-ब-खुद
कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
स्वयमपि
मुख बन जाता है दिवाल पर,
नुकीली नाक और
भव्य ललाट है,
दृढ़ हनु
कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।
कौन वह दिखाई जो देता, पर
नहीं जाना जाता है!!
कौन मनु?
बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब…
अँधेरा सब ओर,
निस्तब्ध जल,
पर, भीतर से उभरती है सहसा
सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति
कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है
और मुसकाता है,
पहचान बताता है,
किन्तु, मैं हतप्रभ,
नहीं वह समझ में आता।

अरे! अरे!!
तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष
चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक
वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ,
शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर
चीख, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात्–
वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक
तिलस्मी खोह का शिला-द्वार
खुलता है धड़ से
घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी
अन्तराल-विवर के तम में
लाल-लाल कुहरा,
कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक,
रहस्य साक्षात!!

तेजो प्रभामय उसका ललाट देख
मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर
गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख
सम्भावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर
विलक्षण शंका,
भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात्
गहन एक संदेह।

वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।
प्रश्न थे गम्भीर, शायद खतरनाक भी,
इसी लिए बाहर के गुंजान
जंगलों से आती हुई हवा ने
फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी-
कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
मौत की सजा दी!

किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही
आँखों में बँध गयी,
किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,
किसी शून्य बिन्दु के अँधियारे खड्डे में
गिरा दिया गया मैं
अचेतन स्थिति में!

3.
मुझे कदम-कदम पर

मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बांहें फैलाए!
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ,
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने….
सब सच्चे लगते हैं,
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए!

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीडा है,
पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ,
इस तरह खुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ,
अजीब है जिंदगी!
बेवकूफ बनने की खातिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ,
और यह देख-देख बडा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ…
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत…. स्वायत्त हुआ जाता है।
कहानियां लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहां जरा खडे होकर
बातें कुछ करता हूँ
…. उपन्यास मिल जाते।

4.
बहुत दिनों से

मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ यों साथ-साथ
फिर बहना बहना बहना
मेघों की आवाजों से
कुहरे की भाषाओं से
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
है बोल रहा धरती से
जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा कहना
उपमा संकेतों से
रूपक से, मौन प्रतीकों से

मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना!
जैसे मैदानों को आसमान,
कुहरे की मेघों की भाषा त्याग
बिचारा आसमान कुछ
रूप बदलकर रंग बदलकर कहे।

5.
पता नहीं

पता नहीं कब, कौन, कहाँ किस ओर मिले
किस साँझ मिले, किस सुबह मिले!!
यह राह जिÞन्दगी की
जिससे जिस जगह मिले
है ठीक वही, बस वही अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर
है कोई घर
बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊँचा, जमीन गीली
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक
गम्भीर वृक्ष के तले
टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!

यह सही है कि चिलचिला रहे फासले,
तेज दुपहर भूरी
सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला
काल बाँका-तिरछा;
पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्रता का हाथ फैलेगी बरगद-छाँह वही
गहरी-गहरी सपनीली-सी
जिसमें खुलकर सामने दिखेगी उरस्-स्पृशा
स्वर्गीय उषा
लाखों आँखों से, गहरी अन्त:करण तृषा
तुमको निहारती बैठेगी
आत्मीय और इतनी प्रसन्न,
मानव के प्रति, मानव के
जी की पुकार
जितनी अनन्य!
लाखों आँखों से तुम्हें देखती बैठेगी
वह भव्य तृषा
इतने समीप
ज्यों लालीभरा पास बैठा हो आसमान
आँचल फैला,
अपनेपन की प्रकाश-वर्षा
में रुधिर-स्नात हँसता समुद्र
अपनी गम्भीरता के विरुद्ध चंचल होगा।

मुख है कि मात्र आँखें है वे आलोकभरी,
जो सतत तुम्हारी थाह लिए होतीं गहरी,
इतनी गहरी
कि तुम्हारी थाहों में अजीब हलचल,
मानो अनजाने रत्नों की अनपहचानी-सी चोरी में
धर लिए गये,
निज में बसने, कस लिए गए
तब तुम्हें लगेगा अकस्मात.
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