हरेली: प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का पहला पर्व

पीयूष कुमार/

प्रकृति ने सभी के लिए बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था की है. बुद्धिशील मनुष्य के लिए यह आवश्यकता कम थी, अत: उसने स्वयं के लिए भोजन उत्पादन का उपाय खोजने का प्रयास किया. इसी क्रम में उसने कृषि प्रक्रिया का अविष्कार किया और यह उसके जीवन का आधार हो गयी. इसमे उसे जिससे सहयोग मिला, उस माटी, पशुओं और कृषि उपकरणों के प्रति कृतज्ञता का भाव जागृत होता गया. यह विनम्र भाव सदियों से अब तक चलायमान है जो छत्तीसगढ़ में हरेली कहलाता है.

आषाढ़ में मानसून ने प्यासी धरती की प्यास बुझाई और उसे जीवन संचालन के लिए उर्वर किया. कृषक ने सारी व्यवस्था कर अपने खेतों में परिश्रम किया. जुताई की, बोवाई की. बैलों ने और कृषि उपकरणों ने सहयोग किया. दो महीनों की मेहनत के बाद अभी क्षणिक विश्राम का समय है. महीनों बाद संतुष्टि का विश्राम मिला है. अत: उल्लसित होने के पहले प्रकृति को नमन करने का समय हरेली के रूप में आ गया है. हरेली छत्तीसगढ़ी लोक का सबसे लोकप्रिय और सबसे पहला त्यौहार है. पर्यावरण को समर्पित यह त्यौहार छत्तीसगढ़ी लोगों का प्रकृति के प्रति प्रेम और समर्पण दर्शाता है.

तस्वीर: साभार गूगल

हरेली में सुबह से ही विभिन्न गतिविधियां आरम्भ हो जाती हैं. इस दिन किसान खेतों पर काम नहीं करते. उनके साथ मजदूरों की भी छुट्टी रहती है. सवनाही टिपिर टापर के बीच कृषक अपने कुलदेवता की पूजा करते हैं. फिर ग्रामदेवता की पूजा होती है. तत्पश्चात कृषि उपकरणों यथा-नांगर (हल), रापा (फावड़ा), गैंती, कुदाली, टंगिया, बंसूला आदि की पूजा की जाती है. इसमें भी हल का जो फाल होता है, वह मुख्य रूप से पूजा जाता है. यह उसकी जुताई की विशेषता के कारण है. इन कृषि उपकरणों का पूजन अगरबत्ती, धूप और तिलक लगाकर किया जाता है. बस्तर में हरेली की शुरुआत कृषकों के द्वारा सुबह से अपने खेतों में जाकर भेलवां पान और शतावरी को खेत मे खोंसकर होती है. भेलवां एक जंगली फल वाला पेड़ है और शतावरी पीली रंगत वाली एक कांटेदार बेल है. यह भी जंगल मे पाया जाता है. इसी क्रम में किसान अपने खेतों में राउत द्वारा दी गयी दवाई जो रसनाजड़ी कहलाती है, उसका छिड़काव करते हैं.

इसके बाद होती है किसान के संगी साथी, उनके प्राण पशुधन की पूजा. गाय, बैल, भैंस आदि को नहलाया धुलाया जाता है. इनमे बैलों और भैंसों ने आषाढ़ की उमस से अब तक अनवरत परिश्रम किया है, सो उनकी अपनी महत्ता है. इन पशुओं को नहला धुलाकर उनकी पूजा की जाती है. फिर उन्हें औषधि खिलाया जाता है. छत्तीसगढ़ में पशुओं को दशमूल की जड़ का काढ़ा गेहूं पिसान (आटा) में मिलाकर देने का रिवाज है. यह उनकी मौसमी बीमारियों से रक्षा करता रहा है. दशमूल अर्थात दस प्रकार की औषधि की जड़ और पत्ती को उबालकर बनाया गया काढ़ा होता है. दशमूल में अरणी, बेल, गोखरू, गंभारी, कटेरी, पिठवन, पाटला, सोनपान, और शालपर्णी औषधियां होती हैं. महासमुंद जिले में कलिहारी की जड़ और बनगोंदली को उबालकर खाते हैं. बनगोंदली का स्वाद कसैला रहता है. यह आमतौर पर जंगलों में इस समय मिल जाता है. यह सभी वनस्पतियां शारीरिक पीड़ा निवारक एवं मौसमी बीमारियों के उपचार में उपयोगी हैं. यह किसानों के द्वारा पशुओं को खिलाया जाता है और स्वयं भी खाया जाता है. इनके अलावा पशुओं को मौसमी बीमारी से बचाने के लिए बगरंडा और नमक खिलाने की परंपरा है जो यादव समाज के लोगों के द्वारा किया जाता है.

तस्वीर: साभार गूगल

छत्तीसगढ़ में इस त्योहार में राउत और लोहार का विशेष महत्व है. राउत भइया सुबह घर-घर जाएगा और अनिष्ट से रक्षा के लिए भेलवां पान या नीम की डगाल घर के माहटी के ऊपर छानी में खोंसेगा. इसी तरह लोहार द्वारा घर की चौखट पर कील ठोकने का रिवाज है. यह कील कष्टकारी शक्तियों से रक्षा कवच का काम करती है. इसपर उन्हें गृहस्वामी द्वारा स्वेच्छा से दाल, चावल, सब्जी और कुछ रुपये उपहार स्वरूप दिए जाते हैं. ऐसा नहीं है कि इन मान्यताओं का कोई आधार नहीं रहा है. दरअसल सावन में अधिक पानी से कई तरह के रोगजनित जीवाणु, कीटाणु, कीड़े मकोड़े और हानिकारक वायरस पनपने का खतरा पैदा हो जाता था. तत्कालीन वैज्ञानिकता के अनुसार इसे दरवाजे पर लगी नीम की पत्ती और चौखट पर लगा लोहा उनके पनपने को निषेध करती थी.

इस अवसर पर पर उड़द दाल का बड़ा, पूड़ी, गुड़ और चावल का चीला, तसमई (खीर) आदि पकवान जो कृषि उपज के होते हैं, बनते हैं. घर का मुखिया इन सबका भोग कुलदेवता और पशुओं को, कृषि उपकरण को लगाएगा और ईश्वर (प्राकृतिक शक्तियों) से सभी के सुख की कामना करेगा. इस अवसर पर कहीं-कहीं मुर्गे या बकरे की बलि देने का रिवाज भी है. इससे इस त्योहार का आनंद लोक में बढ़ जाता है. चूंकि किसान और मेहनतकश के लिए यह आनंद का अवसर है. अत: मद्यपान भी इस दिन बहुत होता है. खानपान का यह दौर दिन भर चलता है.

हरेली तिहार की एक प्रमुख विशेषता तंत्र-मंत्र, जादू-टोना का आरंभ भी है. यह जब समाज वैज्ञानिक रूप से उन्नत न था, तब तत्कालीन सामाजिक मानसिकता अनिष्ट से रक्षा हेतु इन्ही उपायों पर निर्भर रहता था. तंत्र-मंत्र की शिक्षा हरेली के दिन से देने की शुरुआत की जाती थी. लोकहित में सीखने वालों को पीलिया, जहर उतारने, नजर से बचाने, महामारी और बाहरी हवा से बचाने आदि विभिन्न समस्याओं से बचाने के लिए मंत्र सिखाया जाता था. यह शिक्षा भादों की शुक्ल पंचमी तक चलती थी. यह इसका सकारात्मक पक्ष था. किंतु, तंत्र-मंत्र की यह शिक्षा रहस्मय और भयोत्पादक रूप में ज्यादा प्रचलित रही और लोक में इससे जुड़े अनेक किस्से कहानियां प्रचलित हैं. वर्तमान में तंत्र-मंत्र की यह शिक्षा लगभग समाप्त है.

तस्वीर: साभार गूगल

हरेली चूंकि छत्तीसगढ़ी लोक का प्रथम और महत्वपूर्ण तिहार है अत: यह उत्सव का रूप ले लेती है. गांवों में नारियल फेंक प्रतियोगिता आयोजित होती है. सुबह पूजा करने के बाद चौक-चौराहों पर युवा इकट्ठा होते हैं और फिर शुरू होती है, नारियल फेंक प्रतियोगिता. नारियल फेकने की परंपरा न सिर्फ गांवों में, बल्कि कस्बों-नगरों में भी देखी जा सकती है. हरेली के इस मौके पर बैलों की दौड़ का आयोजन लोक में उल्लास भर देता है. सजे-सजाए बैलों की यह दौड़ हरेली उत्सव का मुख्य आकर्षण है. ग्रामीण युवा इस दिन अन्य खेल जैसे- कबड्डी, खो-खो खेलते हैं, वहीं बच्चे गीदीगादा खेलते हैं. यह गीली जमीन पर नुकीली लकड़ी गड़ाने का खेल है. इस अवसर पर बालिकाओं द्वारा बहुप्रचलित खेल फुगड़ी खेला जाता रहा है. वास्तव में यह एक कठिन पर आवश्यक व्यायाम है. फुगड़ी खेलते समय विभिन्न लोकगीत प्रचलित हैं. इनमे सबसे ज्यादा प्रचलित लोक खेलगीत ‘गोबर दे बछरू गोबर दे…’ है. फुगड़ी की शुरुआत इसी लोकगीत से होती है.

हरेली तिहार का मुख्य आकर्षण है गेड़ी. एक ओर जहां किसान पूजा आदि में व्यस्त रहते हैं, वहीं युवा और लइका लोग गेड़ी चढ़ने का मजा लेते हैं. सुबह से ही घरों में गेड़ी बनाने का काम शुरू हो जाता है. गेड़ी लकड़ी या बांस का भी हो सकता है, जो उस पर चढ़ के चलने वाले की सुविधा के हिसाब से ऊंचाई लिए होता है. इस पर चढ़ के चलना अति आनंददायी है. कुछ गेड़ियां दस फीट लम्बी होती हैं, जिनमे पांच फीट की ऊंचाई पर पांव धरकर चढ़ा जा सकता है. यह सावन के महीने में जब कीचड़ अधिक हो जाता रहा होगा, तब इसका आविष्कार हुआ होगा ताकि कीचड़ से पार हुआ जा सके. बस्तर के युवाओं का गेड़ी नृत्य अद्भुत है. यह चमत्कृत करता है. बस्तर में गेड़ी को ‘गोड़ोंदी’ कहा जाता है. वहां यह हरेली तिहार के दूसरे दिन से बनाया और चढ़ा जाता है और स्थानीय नवाखाई तिहार के बासी तिहार वाले दिन तक उपयोग किया जाता है. आखिरी दिन में भीमा देव को यह गेड़ियां अर्पित कर दी जाती हैं. यह गेड़ियां का विसर्जन है. इसके लिए गेड़ी के साथ दो देशी अंडे लेकर भीमादेव के पास जाते हैं, एक अंडे को वहां फोड़ दिया जाता है और दूसरे को साबुत छोड़ दिया जाता है. अगले साल फिर से नई गेड़ियां बनाई जाती हैं. बस्तर में एक विशेष बात जगदलपुर के दशहरे से जुड़ी हुई है. बस्तर का विश्वप्रसिद्ध दशहरा पचहत्तर दिनों का होता है. इसकी शुरुआत हरेली अमावस्या को पहली नेंग (रस्म) से होती है.

तस्वीर: साभार गूगल

हरेली का यह त्योहार अन्य त्योहारों का आरंभ है. इसके बाद तमाम त्योहार, पर्व और उत्सव सालभर चलते रहते हैं. पिछले वर्ष से छत्तीसगढ़ सरकार ने हरेली को अवकाश घोषित किया है. इस दिन राज्य भर में हरेली का त्योहार उत्सव रूप में मनाया जाता है. गत वर्ष इसकी बड़ी धूम रही थी. स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के बाद यह ऐसा अवसर था जब लोग एक साथ दिनभर उत्सवित हो रहे थे. छत्तीसगढ़ अपनी प्रकृति और संस्कृति दोनों से समृद्ध है. यहां हर त्योहार का मूल कृषि और प्रकृति आधारित है. यह मनुष्य और प्रकृति के अंतरसंबंधों की सहज सुगंध है. प्रकृति के साथ मनुष्य के सहअस्तित्व का मूल भाव इन त्योहारों में बीजरूप में है. प्रकृति के प्रति यह कृतज्ञता का भाव बना रहे. तन, मन और जीवन हरियर रहे, यही कामना है.

(लेखक शासकीय महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं. उनसे मोबाइल नंबर 88390-72306 पर संपर्क किया जा सकता है.)
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