हबीब तनवीर ने रंगमंच को आम आदमी के लिए खोला और खेला

जीवेश चौबे/

प्रख्यात रंगकर्मी, निर्देशक, अभिनेता हबीब तनवीर का यह जन्म शताब्दी वर्ष है. उनका जन्म 1 सितंबर 1923 को रायपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ. हबीब तनवीर के पिता हफीज अहमद खान पेशावर, पाकिस्तान के रहने वाले थे.

हबीब तनवीर की स्कूली शिक्षा रायपुर से पूरी हुई. रायपुर के लॉरी म्युनिसिपल हाई स्कूल से उन्होंने मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की. इसके पश्चात नागपुर विश्वविद्यालय से 1944 में स्नातक और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमए किया.

फिर वे मुंबई चले गए. वहां उनका जुड़ाव इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से हुआ. मुंबई मे बतौर प्रोड्यूसर वह आॅल इंडिया रेडियो से भी जुड़े. कविताएं लिखीं, फिल्मों में अभिनय भी किया. जब अंग्रेजों के विरोध में इप्टा से जुड़े प्रमुख रंगकर्मी जेल चले गए, तब हबीब तनवीर ने इप्टा की जिम्मेदारी भी संभाली.

भारतीय रंगमंच की कोई भी चर्चा हबीब तनवीर के बिना अधूरी ही रहेगी. हबीब तनवीर पर चर्चा का मतलब रंगमंच की कई शैलियों, अभिव्यक्तियों, अस्मिताओं के साथ ही लोकाचार इत्यादि पर एक साथ बात करना है. सच तो यह है कि हबीब तनवीर के रंगकर्म और व्यक्तित्व के इतने पहलू हैं कि सब को समेट पाना नामुमकिन है. उनका व्यक्तित्व किसी नाटक के अभिनेता की विभिन्न भूमिकाओं की तरह ही दिलचस्प है. विश्व थियेटर के जबरदस्त जानकार होने के बाद भी उन्होंने लोक में अपनी शैली तलाशी, सिनेमा के मोहपाश में नहीं बंधे, लगातार ग्रामीण कलाकारों के साथ काम किया.

1954 में हबीब तनवीर दिल्ली आ गए. इसी साल उन्होंने अपना ऐतिहासिक नाटक ‘आगरा बाजार’ लिखा और खेला, जिसने सबका ध्यान खींचा. ‘आगरा बाजार’ भारतीय रंग जगत में एक क्रांतिकारी अध्याय माना जाता है. इसके बाद हबीब साहब 1955 में इंग्लैंड चले गए और ‘रॉयल अकैडमी आफ ड्रैमेटिक आर्ट्स’ में ट्रेनिंग ली, वहीं ‘ब्रिस्टल ओल्ड विक थिएटर स्कूल’ में निर्देशन करते हुए लगभग तीन साल तक रंगमंच और उसकी बारीकियों को समझा और यूरोप के थिएटर को नजदीकी से जाना. वे लगभग 8 महीनों तक बर्लिन में भी रहे, जहां उन्होनें बर्टोल्ट ब्रेख्त के विभिन्न नाटक देखे.

1959 में हबीब तनबीर ने अपनी रंगकर्मी पत्नी मोनिका मिश्रा के साथ मिलकर नया थिएटर नाम से एक नाट्य ग्रुप बनाया और जीवन पर्यन्त इसी संस्था के बैनर तले रंगकर्म करते रहे. उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोक नृत्यों, गीतों, संगीत एवं लोक कथाओं का हिंदी नाटकों में पहली बार प्रयोग कर आधुनिक रंगमंच को नया आयाम दिया. उन्होंने रंगमंच को सामाजिक एवं राजनीतिक सरोकार और जिम्मेदारियों से संबंद्ध किया. साथ ही बहुत कम खर्च में होने वाले लोक परंपराओं पर आधारित नाटक पर बल दिया.

शुरुआती दौर में इप्टा से जुड़ाव के कारण वामपंथ का उन पर पूरा असर था, जो अंत तक बना रहा. इसी के चलते उनके नाटकों में यथार्थ हमेशा अधिक मुखर रहा. उन्हें कई बार आलोचना, विरोध के अलावा कट्टरपंथियों के हमले तक झेलने पड़े.

हबीब तनवीर के लिए नाटक खुराक और रंगमंच उनका घर था. उन्होंने रंगमंच को आम आदमी के लिए खेला, खोला और रंगमंच पर आम लोगों की भागादारी सुनिश्चित की. उन्होंने अपने नाटकों के लिए लोक की समृद्ध परम्परा को माध्यम बनाया. उन्होंने थिएटर को एक नई दिशा व अर्थ दिए. बुर्जुआई थिएटर परम्परा को जनसुलभ व जनवादी स्वरूप प्रदान किया. उन्होंने उस दौर में उच्च व मध्यवर्गीय प्रवृत्ति और बंद रंगशालाओं के लिए हो रहे बुर्जुआ रंगकर्म को चुनौती देते हुए उसे लोक का व्यापक संदर्भ दिया. अपने रंगकर्म के जरिए उन्होंने इस धारणा की पुष्टि की कि जो लोकल है वही ग्लोबल भी हो सकता है. उनके नाटकों को सभी वर्ग के दर्शकों ने देखा और सराहा.

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लोकप्रेमी रंगकर्मी हबीब तनवीर ने अपने नाटकों की ‘लोक’ की पृष्ठभूमि को प्रयोगधर्मिता के नाम पर विद्रूप नहीं होने दिया, बल्कि अधिक सार्थक एवं प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी रहे. भारतीय नाट्य परंपरा में ‘लोक’ को प्रतिष्ठित करने के जिन उद्यमों की हम सराहना करते आए हैं, हबीब तनवीर का सम्पूर्ण रंगकर्म आधुनिक नाट्य में उसका नेतृत्व करता रहा है. ‘लोक’ उनके यहां हाशिए पर नहीं है, बल्कि उस पूरे नाट्य प्रदर्शन का मुख्य माध्यम होने के साथ ही पूरी लोक परम्परा का उदघोष है. इस कारण से तनवीर साहब का रंगकर्म केवल हिंदी का ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि रंगकर्म है, जिसमें भारतीय जन की आस्था तो दिखाई देती ही है, लेकिन आकांक्षा, संघर्ष और सपना भी दिखाई देता है.

हबीब तनवीर ने भारतीय रंगकर्म को देशज चेतना तथा संस्कारों के साथ-साथ जनबोली में विकसित व समृद्ध किया. हबीब साहब मानते थे कि भारतीय संस्कृति के केंद्र में ‘लोक’ ही है. ‘लोक’ के साथ जुड़कर ही सार्थक रंगमंच की तलाश पूरी हो सकेगी. इसीलिए अपनी बात को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए वे भारत के केंद्र में पहुंचते हैं. वे कहते थे, ‘आज भी गांवों में भारत की नाट्य परंपरा अपने आदिम वैभव और समर्थता के साथ जिÞदा है. उनके पास एक गहरी लोकपरंपरा है और इस परंपरा की निरंतरता आधुनिक रंगमंच के लिए आवश्यक है.’

हबीब साहब का मानना था, ‘हमें अपनी जड़ों तक गहरे जाना होगा और अपने रंगमंच की निजी शैली विकसित करनी होगी जो हमारी विशेष समस्याओं को सही तरीके से प्रतिबिंबित कर सके.’ इसी आधार पर उन्होंने अपने प्राय: सभी नाटकों के माध्यम से नाटकों के पूर्वकालिक स्थापित मान्यताओं को खारिज किया और नए प्रयोगों व नए प्रतिमान गढ़ने के लिए ‘लोक’ में व्याप्त उस समृद्ध परम्परा व खजाने से रू-ब-रू हुए, जिसे आधुनिकता के नाम पर बुर्जुआ रंग प्रेमियों की दुनिया ने हाशिए पर डाल दिया था.

‘आगरा बाजार’ और ‘मिट्टी की गाड़ी’ से जिस नए प्रयोग व शैली की शुरुआत हबीब साहब ने की उसका मुकम्मल आकार ‘गांव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद’ से मिला. ‘चरनदास चोर’ के मंचन के पश्चात तो हबीब साहब के इस लोकरंग प्रधान नए शिल्प व रंग मंचन को दर्शकों की मान्यता ही मिल गई. इसके बाद तो हबीब साहब की यह शैली भारतीय नाट्य जगत के साथ ही अंतरराष्ट्रीय रंग जगत में प्रतिष्ठित हो गई.

लोक से ली गई यह परिष्कृत मंचन शैली संस्कृत, लोक और पाश्चात्य शैली का सफल मिश्रण था. चाहे ‘आगरा बाजार’ हो या ‘गांव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद’ हो या ‘चरनदास चोर’ अथवा ‘हिरमा की अमर कहानी’,‘बहादुर कलारिन’, ‘देख रहे हैं नैन’ कोई भी प्रस्तुति हो सभी में वे अपने समय तथा लोक के मूल्यों की स्थापना के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहे. साथ ही लोक कलाकरों को मुख्य धारा में लाने के प्रयास भी करते रहे थे. हबीब तनवीर के नाटक समकालीनता और भारतीय रंग परम्परा का धारदार मिश्रण रहे. उनके नाटकों में आधुनिकता की समझ एवं चेतना के साथ ही समकालीन परिस्थितियों से बहस भी बेबाकी से उपस्थित हुआ करती थी.

गीत, संगीत हबीब साहब के नाटकों की विशिष्ट पहचान रहे हैं. एक तरह से यह कह सकते हैं, हबीब साहब ने ऐसी शैली तैयार की, जिसमें रंगमंच पर नाट्य कर्म की सभी तरह की अभिव्यक्तियों को प्रभावशाली व सुरुचिपूर्ण तरीके से समाहित कर प्रस्तुत किया जा सके. इस मकसद में उनके नाटक के गीत काफी असरदार सिद्ध हुए. उनके नाटक ‘आगरा बाजार’ से लेकर ‘चरनदास चोर’, ‘देख रहें हैं नैन’, ‘बहादुर कलारिन’, ‘कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना’, ‘शाजापुर की शांतिबाई’ आदि लगभग सभी नाटकों के गीत इसके उदाहरण हैं. इन नाटकों के गीत आज भी उतने ही पसंद किये जाते हैं, जितना उस समय. हबीब साहब के नाटकों का रंग-संगीत अपने आप मे एक अर्थपूर्ण विशिष्टता लिए हुए रहता था. हिन्दी रंगमंच के क्षेत्र मे ऐसा रंग-संगीत कम ही मिल पाता है. हबीब साहब दर्शकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते थे, इसीलिए वे दर्शकों को टोटल थियेटर का आस्वाद प्रदान करने के लिए कटिबद्ध दिखाई पड़ते हैं.

अलग राज्य बनने के बाद उन्हें छत्तीसगढ़ से बड़ी उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं. मगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातनाम इस अद्वितीय रंगकर्मी को अपने ही शहर व प्रदेश में बेरुखी व उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा. उपेक्षा व अनदेखी से दु:खी हबीब तनवीर खून का घूंट पीकर मध्यप्रदेश के भोपाल विस्थापित हो गए. विगत वर्षों में सरकारों द्वारा छत्तीसगढ़ में इस महान रंगकर्मी की लगातार उपेक्षा की जाती रही. मगर रंगकर्मियों, रंगप्रेमियों और अनके संस्थाओं ने उनकी स्मृति में हर वर्ष विभिन्न आयोजन करती रही हैं. यही उनकी उपलब्धि भी है कि वे अपने चाहने वालों के दिलों में एक प्रेरणा बनकर विशिष्ट स्थान बनाये हुए हैं.

हबीब तनवीर ने थिएटर के साथ साथ टीवी सीरियल एवं बॉलीवुड की फिल्मों में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी. उनको पद्मश्री, पद्मविभूषण और संगीत नाटक अकादमी जैसे सम्मानों से नवाजा गया. सत्तर के दशक में वह राज्यसभा के सदस्य रहे. राज्यसभा के सदस्य बनने वाले वे दूसरे रंगकर्मी थे. उनसे पहले यह सम्मान पृथ्वीराज कपूर को मिला था. इस शताब्दी वर्ष में पूरे साल अनेक संस्थाओं द्वारा विभिन्न आयोजनों की शुरुआत उनके जन्म दिवस 1 सितंबर से हो रही है. हमें गर्व है कि हबीब तनवीर जैसा व्यक्तित्व हमारे रायपुर में जन्मा और देश-विदेश में अपनी एक अलग पहचान बनाई. वे सदा रंगकर्मियों व रंग दर्शकों के प्रेरणाश्रोत बने रहेंगे.

(लेखक कवि, कथाकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं. वे लगातार समसामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं. वर्तमान में कानपुर से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘अकार’ के उप-संपादक हैं.)
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