कुश या कौशिल्या का कोसल?

छत्तीसगढ़ गाथा डेस्क.

त्तीसगढ़ से भगवान श्रीराम का बहुत गहरा नाता माना जाता है. कहा जाता है, भगवान श्रीराम ने अपने 14 वर्षों के वनवास का काफी समय छत्तीसगढ़ में व्यतीत किया था. छत्तीसगढ होते हुए ही वे लंका पहुंचे थे.

छत्तीसगढ़ को भगवान श्रीराम का ननिहाल भी माना जाता है. कहा जाता है, भगवान श्रीराम की माता कौशिल्या छत्तीसगढ़ की थीं. रायपुर से लगे चंदखुरी में माता कौशिल्या का दुनिया का एकमात्र मंदिर मौजूद है.

इतना ही नहीं, कहा जाता है, भगवान श्रीराम के पुत्रकुश और लव का जन्म भी छत्तीसगढ़ में हीहुआ था. बलौदाबाजार-भाठापारा जिले में पड़ने वाले तुरतुरिया नामक जगह को वाल्मिकी का आश्रम माना जाता है. कहा जाता है, यहीं पर माता सीता ने लव-कुश को जन्म दिया था.

कुछ इतिहासकारों का मानना है, भगवान श्रीराम के जेष्ठ पुत्र कुश के कारण ही छत्तीसगढ़ का नाम कोसल पड़ा. हालांकि ज्यादातर इतिहासकार इस बात से सहमत नहीं हैं. उनका मानना है, कोसल माता कौशिल्या के पिता भानुमंत का राज्य था. यानी कुश के पहले भी कोसल था.
इतिहासकार प्यारेलाल गुप्त की किताब ‘प्राचीन छत्तीसगढ़’ के अनुसार, भारत के अत्यंत प्राचीन ग्रंथ वाल्मिकी रामायण में दो कोसल का उल्लेख है. उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल. उत्तर कोसल सरयूतट पर विस्तृत रूप से फैला हुआ था, जबकि दक्षिण कोसल विंध्याचल पर्वत माला के सुदूर दक्षिण तक था.

श्री गुप्त के अनुसार, कोसल इतना विस्तृत था कि उसे सात खंडो ंमें विभागित किया गया था. इनमें मेकल कोसल, क्रांति कोसल, चेदि कोसल, काशि कोसल, पूर्व कोसल, कलिंग कोसल और दक्षिण कोसल शामिल हैं. इसका उल्लेख वायु पुराण में किया गया है.

गोकुल प्रसाद द्वारा लिखे गए ब्रिटिशकालीन हिंदी गजेटियर ‘रायपुर रश्मि’ के मुताबिक, सिरपुर से 15 और रायपुर से 50 मीलदूर बलौदाबाजार के बहिरिया गांव के पास तुरतुरिया नामक एक तीर्थ है. इसे वाल्मिकी का आश्रम कहते हैं और कहा जाता है, यहीं लव-कुश का जन्म हुआ था. कुश के नाम से ही इस प्रदेश का नाम कौसल पड़ा.

रायपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में भी इसका उल्लेख इसी प्रकार मिलता है.

हालांकि ज्यादातर इतिहासकार और विद्वान इस बात से सहमत नहीं हैं कि छत्तीसगढ़ का कोसल नाम कुश के नाम पर पड़ा है.

वरिष्ठ इतिहासकार डॉ. एलएस निगम के अनुसार, छत्तीसगढ़ में इतिहास में प्रमाणिक काम थोड़ा कम हुआ है. इसलिए कई तथ्यों को लेकर भ्रम की स्थिति निर्मित होती है. लोक मान्यताओं और जनश्रुतियों ने इतिहास में बड़ा स्थान ले लिया है.

डॉ. निगम के मुताबिक, कोसल राजा भानुमंत का राज्य था. जिनकी पुत्री भानुमति थी. उनका विवाह अयोध्या के राजा दशरथ से हुआ था. कोसल प्रदेश की होने के कारण उनका नाम कौशिल्या पड़ा था.

इस तरह कोसल प्रदेश कौशिल्या से भी पहले था.

डॉ. निगम कहते हैं, ‘तुरतुरिया में बुद्धकी विशाल मूर्तिमिली है. संभवत: उसे ही वाल्मिकी की मूर्ति मान लिया गया है. इसके अलावा एक शिलालेख में अश्व का चित्रण है. उसे अश्वमेध यत्र का घोड़ा मान लिया गया, जिसे लव-कुश ने पकड़ा था. ये मान्यताएं जनमानस में इतनी गहरी बैठी हैं कि इतिहासकार भी इनका खंडन नहीं कर सके.

वरिष्ठ इतहासकार, डॉ. रमेंद्र नाथ मिश्र के अनुसार, अभिलेखों में दो कोसल उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल का उल्लेख मिलता है. उत्तर कोसल अयोध्या का क्षेत्र था, वहीं दक्षिण कोसल छत्तीसगढ़ का क्षेत्र कहलाता था. भानुमंत दक्षिण कोसल के राज थे. कोशिल्या उनकी पुत्री थीं. कोसल नाम कौशिल्या से भी पहले था.

डॉ. मिश्र के मुताबिक, अभिलेखों में वाल्मिकी का आश्रम उत्तर कोसल में बताया गया है. हालांकि इसे लेकर कई तरह की मान्यताएं हैं. उत्तर भारत के लोग मानते हैं, वाल्मिकी आश्रम उनके यहां है. छत्तीसगढ़ में तुरतुरिया को वाल्मिकी का आश्रम माना गया है. कहा जाता है, लव-कुश का जन्म इसी स्थान पर हुआ था. इतिहास में लोकआस्था और जनश्रुतियों की गहरी पैठ है. पर, कुश के कारण छत्तीसगढ़ का कोसल नाम पड़ा होगा, यह सत्य नहीं है.

प्रो. बालचंद जैन, पं. प्रयाग दत्तशुक्ल व मौनी बाबा रामदास ने वाल्मिकी का आश्रम तुरतुरिया को माना है. दूधाधारी मठ के महंत बाबा दूधाधारी के समकालीन मौनी बाबा रामदास थे. उन्होंने ‘गुरु महिमा प्रकाश’ नामक ग्रंथकी रचना की है. 1650 ई. के लिखित ग्रंथ में इसका वर्णन है. आज से साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व भी तुरतुरिया को देश के योगी और महात्मा वाल्मिकी का आश्रम मानते थे.

संस्कृत कॉलेज के पूर्व प्राध्यापक डॉ. पार्थसारथी राव एक नया सवाल खड़ा करते हैं. उनके मुताबिक, राम ने सीता का त्याग किया तो सीता वाल्मिकी आश्रम में आकर रहने लगी थीं. अगर, चंदखुरी कौशिल्या का मायका है तो क्या उनके मायके के लोगों को सीता की जानकारी नहीं हुई होगी या क्या सीता से उनका परियच नहीं हुआ होगा? यह कैसे संभव है.

डॉ. राव कहते हैं, भगवान श्रीराम ने कुश को कोशला राज्य का राजा बनाया था, जिसकी राजधानी कुशावती थी. लेकिन राम के देवलोक गमन के बाद अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी के कहने पर वे कुशावती छोड़कर अयोध्या चले गए थे. उन्होंने अयोध्या से शासन चलाया. डॉ. राव के मुताबिक, वाल्मिकी का आश्रम तमसा नदी के किनारे था, जो अयोध्या के पास है.

डॉ. राव के द्वारा कही गई बात का उल्लेख वाल्मिकी रामायण में भी मिलता है.

‘अयोध्यापति श्रीराम चंद्र के जेष्ठ पुत्र कुश जो जानकी के गर्भ से महार्षि वाल्मिकी के आश्रम में उत्पन्न हुए थे और जिन्होंने अपने छोटे भाई लव के साथ वाल्मिकी कृत रामायण का पाठ किया था, पिता से उन्हें कोशला राज्य का अधिकार मिला था. जिसकी राजधानी कुशस्थली थी. रामचंद्र के स्वर्ग चले जाने के बाद अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी के कहने पर वे पुन: अयोध्या चले आए थे और उन्होंने कुशस्थली त्याग दी थी’.

जबलपुर विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक और रामकथा पर शोध करने वाले डॉ. श्याम कुमार सुल्लेरे के मुताबिक, मान्यता तो उत्तर और दक्षिण कोसल की है, लेकिन मेरे अनुमान के मुताबिक पूर्व में केवल उत्तर कोसल ही रहा होगा. उत्तर भारत के लोगों का आवागमन छत्तीसगढ़ में होता था. चूंकि यह दक्षिण में स्थित था, इसलिए इसे दक्षिण कोसल बोला जाने लगा होगा.

डॉ. सुल्लेरे के मुताबिक, साहित्य में तो रामकथा बहुत पहले से हैं, लेकिन मूर्तिकला में रामकथा बहुत बाद में आई. मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में ‘नचना’ नाम की एक जगह है. नचना में पहली बार रामकथा का शिल्पाकन किया गया था. इसके बाद यह कला देश से निकलकर विदेशों तक पहुंची. छत्तीसगढ़ में रामकथा के दृश्य मूर्तियों में कई जगहों पर मिलते हैं. ये शिल्पांकन गुप्तकाल में हुए थे. इसके पूर्व मूर्तियों में रामकथा का शिल्पाकन कहीं नहीं मिलता.

छत्तीसगढ़ में राम वन गमन मार्ग की खोज करने वाले मन्नू लाल यदु ने भी अपनी किताब दंडकारण्य रामायण में दोकोसल का उल्लेख किया है. उनके मुताबिक, उत्तर कोसल के राजा दशरथ और दक्षिण कोसल के राजा भानुमान थे, जिन्हें भानुमंत भी कहा जाता था. उनकी पुत्र भानुमति की शादी उत्तर कोसल के युवराज दशरथ से हुई थी. शादी के पश्चात कोसल की बेटी होने के कारण भानुमति का नाम कौशिल्या पड़ गया. भानुमति राजा भानुमंत की इकलौती बेटी थी. राजा भानुमंत ने अपनी बेटी को दहेज में राज्य का एक बड़ा हिस्सा भी दे दिया था. राजा दशरथ को दक्षिण कोसल का बड़ा क्षेत्र मिल जाने के कारण उन्हें कोसल राज भी कहा गया है. हालांकि दक्षिण कोसल की राजधानी को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं. फिर भी पुरातात्वविक और जनश्रुति के आधार पर आरंग, चंदखुरी, गढ़रींवा नवागांव व मंदिरहसौद का क्षेत्र इसमें आता था.

दक्षिणकोसल के संबंध में चीनी यात्री वेह्नसांग ने 639 ई. में यहां की यात्रा करते हुए लिखा है, दक्षिण कोसल विस्तार लगभग दो हजार मील वृत्त में था. इसके अंतर्गत रायपुर, बिलासपुप, रायगढ़, और संबलपुर जिले का अधिकांश भाग आता था. उत्तर में इसकी सीमा अमरकंटक थी. पश्चिम में दुर्ग जिले की ओर तथा दक्षिण में बस्तर और पश्चिम में कालाहांडी ओड़िशा तक इसका क्षेत्र था.

छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध साहित्यकार हरि ठाकुर ने इतिहास और पुरातत्व पर भी अनेक लेख और निबंध लिखे हैं. उन शोधपरख लेखों को ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ में संकलित किया गया है. उन्होंने लिखा है, आदि कवि वाल्मिकी का आश्रम तुरतुुरिया के सघन वन में एक झरने के निकट था, ऐसा लोक विश्वास यहां के वनवासियों में है. इस स्थान को ही भगवान श्रीराम के पुत्रों कुश तथा लव का जन्म स्थान माना गया है. राम की माता कौशिल्या को दक्षिण कोसल की राजकुमार कहा गया है. उनका कौशिल्या नाम इसका भान कराता है.

‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ के मुताबिक, अनुमान है कि खारवेल के पूर्वजों को कोसल नगर के सातवाहन वंश के किसी नरेश ने अपदस्थ किया था. शिवश्री अपीलक, वेदश्री, कुमारवदत्तश्री नामक सातवाहन नरेशों का शासन इस कोसल पर था, इसके अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं.

अपीलक का उल्लेख पुराणों में मिलता है. उनके नाम का एक सिक्का पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय को बालपुर (जिला रायगढ़) में तथा दूसरा सिक्का मल्लार में प्राप्त हुआ है.

वेदश्री की मुद्रा भी मल्लार में प्राप्त हुई है.

किरारी से प्राप्त काष्ठ यज्ञ यूप में उत्कीर्ण लेख उसी सातवाहन काल का है. उड़ीसा से प्राप्त पाण्डुलिपि में ‘कोसल नगर’ के अस्तित्व में सूचना महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासन काल के एक ताम्रपत्र से प्रमाणित होती है. ताम्रपत्र लेख में कोसल नगर में एक शिव मंदिर के निर्माण का उल्लेख है. यह ताम्रपत्र कुछ ही वर्षों पूर्व प्राप्त हुआ है, जबकि उड़ीसा से प्राप्त पाण्डुलिपि छ:-सात सौ वर्ष प्राचीन है. ताम्रपत्र में उल्लेख के आधार पर पाण्डुलिपि में उल्लेखित ‘कोसल’ नगर के अस्तित्व की ऐतिहासिकता पर सन्देह नहीं रह जाता है.

अयोध्या वाले क्षेत्र में कोसल नामक नगर था, ऐसी सूचना किसी भी स्रोत से प्राप्त नहीं है. इसके विपरीत छत्तीसगढ़ वाले इस कोसल राज्य में कोसल नगर का अस्तित्व यह सिद्ध करता है कि छत्तीसगढ़ वाला कोसल ही मूल कोसल है. उसकी राजधानी का नाम कोसल नगर था. यदि अयोध्या राज्य का मूल नाम कोसल होता तो उसकी राजधानी का नाम भी कोसल होता. इससे भी यही सिद्ध होता है कि अयोध्या राज्य का नाम कोसल बहुत बाद में पड़ा.

पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय के अनुसार, कोसीर ग्राम (चन्द्रपुर) में जो मन्दिर है, उसमें स्थापित देवी का नाम कोसलेश्वरी है. पटना (पहले यह कोसल में था, अब उड़ीसा में है) में मंदिर है, उसमें स्थापित महादेव को कोसलेश्वर महादेव कहा जाता है. मल्लार के पास कोसला ग्राम है, वहां माता कौसल्या का मन्दिर है. भगवान श्रीराम की माता कौसल्या इसी कोसल की राजकन्या थीं. इसीलिये उनका नाम कौसल्या था. उनके प्रति यहां के लोगों में बड़ी श्रद्धा थी. इसलिये मन्दिर में उनकी प्रतिमा स्थापित कर दी गयी.

‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ के अनुसार, महानदी का सर्वप्रथम उल्लेख आदि कवि वाल्मीकि ने अपने ग्रंथ रामायण में किया है. अपने पुत्र भगवान श्रीराम के वनवास के लिये जाने का समाचार सुनकर माता कौशिल्या विलाप करने लगती हैं. वे कहती हैं-

स्थिर न हृदयं मन्ये ममेदं यन्त्र दीयर्ते।
प्रावृसील महानद्या: स्पृष्टं कूलं नवाम्भसा।।49।।
(अयोध्या काण्ड , सर्ग 20)

अर्थात कौशिल्या कहतीं हैं कि-निश्चय ही यह मेरा हृदय बड़ा कठोर है, जो तुम्हारे विछोह की बात सुनकर भी वर्षाकाल के नूतन जल के प्रवाह से टकराये हुए महानदी के कगार की भांति विदीर्ण नहीं हो जाता. महारानी कौशिल्या कोसल नरेश भानुमन्त की कन्या थीं. कोसल राज्य का विस्तार महानदी के तट पर ही हुआ था. कौसल्या का बाल्यकाल महानदी के तट पर ही व्यतीत हुआ था. महानदी से उनका भावनात्मक संबंध था. यही कारण है कि जब उन पर पुत्र वियोग के दारूण दुख का पहाड़ टूट पड़ा, तो उनके मुख से अनायास महानदी का नाम निकल पड़ा. माता कौसल्या ने वर्षाकाल की बाढ़ में महानदी के कगारों को क्षत-विक्षत होकर ढहते हुए देखा था. उनके हृदय पर इस दृश्य की छाप इतनी गहरी थी कि दुख के कारण अपने हृदय की दीन अवस्था की तुलना के लिए उन्हें महानदी के सिवा कोई दूसरी उपमा नहीं सूझी.

वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ता डॉ. अरुण कुमार शर्मा के अनुसार, तुरतुरिया में ही वाल्मिकी का आश्रम था. इस बात के कई प्रमाण वहां मौजूद हैं. वहां एक तुरम्य झरना है, जो तरतुर-तुरतुर करके बहता है. इसलिए उस जगह का नाम तुरतुरिया पड़ गया. झरने के नीचे 7-8 यू आकार की गुफाएं हैं, जैसी अजंता में हैं. उनमें मनुष्य के रहने के निशान हैं. आग जलने के निशान हैं. उन्हीं में से एक गुफा नागार्जुन की है. उन्हीं में से एक गुफा में लव—कुश का जन्म हुआ था.

डॉ. शर्मा के अनुसार, चंदखुरी माता कौशिल्या की नगरी है. उनका जन्म यहीं हुआ था. चंदखुरी में कौशिल्या का मंदिर भी है. छत्तीसगढ़ एक मात्र ऐसी जगह है, जहां मामा भांजे के पैर पड़ते हैं. दूसरे जगहों भांजे मामा के पैर छूते हैं. ऐसा इसलिए क्यों कि यह राम का ननिहाल है. डॉ. शर्मा तुरतुुरिया में वाल्मिकी आश्रम और लव-कुश के जन्म तथा चंदखुरी में माता कौशिल्या के जन्म के बाद को सही ठहराते हैं. वे कहते हैं, इस संबंध में कई प्रमाण मौजूद हैं.

डॉ. शर्मा के मुताबिक, राम लंका जाते समय छत्तीसगढ़ से होकर गुजरे थे. वे दण्यकारण होते हुए गए थे. दण्यकारण्य का क्षेत्र सिहावा पर्वत से लेकर कांकेर तक है. भगवान श्रीराम इंद्रवती नदी के किनारे-किनारे बीजापुर होते हुए आगे निकले थे.
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