प्रफुल्ल ठाकुर/
छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य (हसदेव जंगल) इन दिनों चर्चा में है. हसदेव अरण्य को बचाने प्रदेश के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों और विदेशों तक में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. मध्यभारत का फेफड़ा कहे जाने वाले इस जंगल को काटने के निर्णय से लोग न केवल चिंतित हैं, बल्कि आक्रोशित भी हैं. कोयला खनन के लिए हसदेव अरण्य के करीब 4.50 लाख पेड़ों को काटा जाना है.
विशेषज्ञों के मुताबिक, सरकार के इस निर्णय का पर्यावरण पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ेगा. हसदेव के जंगल कटने से पेड़ों की 167 प्रजतियां खत्म हो जाएंगी. वहीं हाथी, भालू, तेंदुआ, भेड़िया, धारीदार लकड़बग्धा जैसे दर्जनभर से अधिक वन्य जीवों का रहवास खत्म हो जाएगा. इसके अलावा विलुप्तप्राय चिड़ियों, तितलियों और सरीसृपों की दर्जनों प्रजातियां भी विलुप्त हो जाएंगी.
हसदेव अरण्य को लेकर दो महत्वपूर्ण संस्थानों भारतीय वन्य जीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) और भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) की संयुक्त और अलग-अलग रिपोर्ट्स आई हैं. इन रिपोर्ट्स में हसदेव अरण्य के जंगल कटने और उसके विनाश से होने वाले गंभीर परिणामों को लेकर सचेत किया गया है.
एनजीटी के आदेश पर दो सर्वोच्च और प्रतिष्ठित संस्थानों ने क्षेत्र का अध्ययन शुरू किया. हालांकि जिस कोयला खदान के मामले में इस तरह के प्रमाणिक अध्ययन की जरूरत बताई गई, उसे न केवल तमाम स्वीकृतियां हासिल हो गईं, बल्कि आज की तारीख में वह पूरी क्षमता के साथ संचालित भी हो रही है. दोनों शीर्ष संस्थानों ने अपने अध्ययन में संचालित हो रही इस कोयला खदान के प्रभावों को भी अपनी रिपोर्ट में शामिल किया है.
भारतीय वन्य जीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई), देहरादून की रिपोर्ट में वैज्ञानिक और तकनीकी आंकलन के आधार पर स्पष्ट तौर पर बताया गया है कि हसदेव अरण्य वन क्षेत्र को नो-गो एरिया घोषित किया जाना चाहिए और यहां किसी भी नई कोयला खदान को स्वीकृति नहीं दी जानी चाहिए.
रिपोर्ट यह भी कहती है कि इस सघन वन क्षेत्र और हाथियों के नैसर्गिक आवास में किसी भी प्रकार की दखल हाथी-मानव संघर्ष को उस स्थिति में ले जाएगी, जिसे सम्हाल पाना राज्य सरकार के लिए मुमकिन नहीं होगा. 277 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में डब्ल्यूआईआई ने पर्यावरणीय और जैव विविधता के साथ वन्य जीवों व मनुष्यों के बीच बढ़ रहे संषर्घ को लेकर भी विस्तार से बताया है.
रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान को अपवाद स्वरूप ज्यों का त्यों संचालित किया जा सकता है, लेकिन इसके अलावा एक भी कोयला खदान पूरे हसदेव क्षेत्र में नहीं खोला जाना चाहिए. पूरे क्षेत्र को नो-गो एरिया घोषित किया जाना चाहिए.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मौजूदा परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान के लिए अडानी की ओर से तैयार किया गया कंसर्वेशन प्लान बहुत ‘बुनियादी और सामान्य’ है. हसदेव के संरक्षण के नजरिए से इसे व्यापक तौर पर दुरुस्त किए जाने की जरूरत है. क्षेत्र के लिए थोड़ी सी भी लापरवाही बहुत घातक सिद्ध होगी.
राज्य सरकार को यह रिपोर्ट बहुत पहले ही सौंपी जा चुकी थी, लेकिन सरकार ने इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट की सिफारिशों और निष्कर्षों को न केवल पूरी तरह से नजरअंदाज किया, बल्कि परसा कोल खदान के लिए दूसरे चरण की वन स्वीकृति की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया. राज्य सरकार ने इस रिपोर्ट को पूरी तरह से खारिज कर दिया और पर्यावरण को ताक पर रखकर खनन प्रक्रिया को मंजूरी दे दी है.
रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष एवं सिफारिशें
रिपोर्ट बहुत स्पष्टता के साथ बताती है कि हसदेव अरण्य का क्षेत्र हमेशा से विलुप्तप्राय और संकटग्रस्त जीवों का रहवास रहा है और अभी भी क्षेत्र संरक्षण की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है.
– कैमरा ट्रैप्स और साइन सर्वेक्षणों के जरिये यह दर्ज किया गया है कि तारा, परसा और केते एक्सटेंशन जैसे कोयला खदानों के क्षेत्र में स्तनपाई (मेमल्स) वन्य जीवों की 9 ऐसी प्रजातियां मौजूद हैं, जो अनुसूची-1 में शामिल हैं और जिन्हें संकटग्रस्त प्रजातियों की श्रेणी में रखा गया है. इनमें हाथी, तेंदुआ, भालू, भेड़िया, धारीदार लकड़बग्घा जैसे वन्य जीव शामिल हैं. भारत के संरक्षण कानूनों में इनके संरक्षण को प्राथमिकता में रखा गया है.
– क्षेत्र में कम से कम 92 पक्षियों की ऐसी प्रजातियां मौजूद हैं. इनमें से 6 अनुसूची-1 में शामिल हैं, जिनमें सफेद आंखों वाली वजर्ड, ब्लैक सोलजर्स काईट आदि प्रमुख हैं. इसके अलावा तितलियों की लुप्तप्राय प्रजातियां और सरीसृप (राइप्टाइल्स) भी बहुतायत में मौजूद हैं.
– क्षेत्र में 167 से ज्यादा प्रजातियों के पेड़-पौधे हैं, जिनमें 18 प्रजातियां बेहद संवेदनशील व संकटग्रस्त हैं. रिपोर्ट के अनुसार, यहां 74 प्रजाति के वृक्ष, 41 प्रजाति के छोटे वृक्ष, 32 प्रजाति के औषधीय पौधे व घास, 11 प्रजाति की लताएं और 11 काष्ठ लताओं की प्रजाति मिलती हैं.
– यहां 23 प्रजाति के सरीसृप और 43 प्रजाति की तितलियां मिलती हैं. यहां अध्ययन के दौरान 31 प्रजाति के स्तनपायी जीव भी मिले हैं, जिनमें से 8 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं.
– हसदेव अरण्य लगे हुए उसके पड़ोसी अचानकमार, कान्हा टाइगर रिजर्व और भोरामदेव वन्य जीव अभ्यारण्य के बीच भौगोलिक जुड़ाव है. वन्य जीवों की आवाजाही को देखते हुए इस क्षेत्र में शेरों की आवाजाही से भी इंकार नहीं किया जा सकता.
– हसदेव अरण्य के विभिन्न हिस्सों से 40-50 हाथी आवाजाही करते हैं. इसके कारण असामान्य रूप से हाथी-मानव संघर्ष में इजाफा हुआ है. यह हाथियों के नैसर्गिक रहवास से छेड़छाड़ का नतीजा है. हाथियों के नैसर्गिक रहवास से पलायन को बढ़ाने वाली कोई भी नकारात्मक गतिविधि इस स्थिति को और भयावह बना देगी, जिसे संभालना मुश्किल हो जाएगा.
– हसदेव अरण्य और उसके आसपास मुख्य रुप से आदिवासी बसते हैं, जिनकी आजीविका वन संसाधनों पर निर्भर है. हर महीने की आय में केवल लघु वनोपज का ही 46 फीसदी योगदान होता है. स्थानीय समुदाय की कुल वार्षिक आय का 60 से 70 फीसदी वन आधारित है.
– इसलिए ये समुदाय इन जंगलों के संरक्षण को प्राथमिकता देते हैं. स्थानीय समुदाय इस जंगल में खनन गतिविधियों का समर्थन नहीं करते, क्योंकि वो इसे जंगलों के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं. इसके अलावा समुदायों के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू भी हैं, जिन्हें बचाने के लिए भी यहां खनन का विरोध कर रहे हैं.
अडानी की संरक्षण योजना ‘काम चलाऊ’
रिपोर्ट में एक पूरा अध्याय पहले से संचालित हो रही परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान के दुष्प्रभावों को समर्पित है. रिपोर्ट अडानी द्वारा संचालित इस कोयला खदान के लिए लागू मौजूदा संरक्षण योजना को ‘काम चलाऊ’ और इस समृद्ध जैव विविधतता और वन क्षेत्र को होने वाले नुकसान से निपटने के लिए अपर्याप्त बताती है. दो अध्यायों और लगभग 80 पेजों में उन मानकों को अपनाए जाने की बात कही गई है, जिनसे परसा ईस्ट केते बासन के संचालन से पैदा होने वाली परिस्थितिकी नुकसानों की भरपाई और पैदा होने होने वाली चुनौतियों से समुचित ढंग से निपटा जा सके.
सरकार की मंंशा पर सवाल खड़ा करती रिपोर्ट
रिपोर्ट में सख्ती के साथ यह सिफारिश की गयी है कि ‘इस क्षेत्र में अगर कोई नई कोयला खदान नहीं भी खोली जाए तब भी पहले से संचालित परसा ईस्ट केते बासन और चोटिया कोयला खदानों से उत्पन्न हो रहे खतरों से बहुत संवेदनशील ढंग से निपटने की जरूरत है.’ राज्य सरकार ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है, लेकिन आधिकारिक रूप से रिपोर्ट सार्वजनिक है. रिपोर्ट राज्य सरकार की कार्य प्रणाली, वन्य जीव संरक्षण, पर्यावरण के साथ पांचवी अनुसूची में शामिल विशिष्ट क्षेत्र और आदिवासी समुदाय की प्रति मंशा पर कई गभीर सवाल खड़े करती है. सरकार ने रिपोर्ट्स के खिलाफ जाकर हसदेव अरण्य के संघन और समृद्ध नैसर्गिक वन क्षेत्र में कोयला खदानों के लिए रास्ता बनाया है.
हसदेव बांगो बांध में पानी की हो जाएगी कमी
हसदेव बांगो बांध से जांजगीर-चांपा जिले की 6 लाख हेक्टेयर जमीन सिंचित होती है. जांजगीर-चांपा जिला राज्य में सर्वाधिक 72 फीसदी सिचिंत इलाका है. यह वही इलाका है, जहां राज्य में धान की उपज सर्वाधिक है. हसदेव के इलाके में खनन होने से हसदेव बांध के पानी का कैचमेंट एरिया बुरी तरह से प्रभावित होगा और बांध में पानी की कमी हो जाएगी. हसदेव से निकलने वाली छोटी-छोटी नदियों का पानी कई शहरों की जलापूर्ति करता है. खनन की स्थिति में पानी कम हुआ तो बिलासपुर जैसे शहरों में पीने के पानी का संकट भी पैदा हो सकता है. जिस बिजली के नाम पर कोयले के उत्खनन करने की तैयारी है, हसदेव बांगो बांध से 120 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है. जाहिर है, बांध में पानी नहीं रहा तो यह बिजली उत्पादन भी दम तोड़ देगा.
फर्जी ग्रामसभा प्रस्ताव तैयार करने का आरोप
परसा ईस्ट केते बासन कोयला खनन परियोजना को लेकर ग्रामीण आदिवासी लगातार फर्जी ग्रामसभा प्रस्ताव तैयार करने का आरोप लगा चुके हैं. नवंबर 2012 में विभिन्न मंत्रालयों को प्रेषित ज्ञापन में भी फर्जी ग्रामसभा की जांच और वनाधिकार मान्यता कानून के तहत लंबित दावों पर कार्यवाही की आज भी जारी है. परियोजना के लिए खनन कंपनी ने 32 आदिवासियों की व्यक्तिगत वनाधिकारों की जमीनों को नियम विरुद्ध खरीदा है. इसकी जांच उदयपुर एसडीएम की अध्यक्षता में उप खंड समिति ने की समिति ने 25 अगस्त 2020 को कलेक्टर को पे्रषित अपनी जांच रिपोर्ट में कहा कि वनाधिकार मान्यता के तहत प्रद्दत वनाधिकार पत्रक की जमीनें सिर्फ भूमि अधिग्रहण कानून के जरिए सरकार ले सकती है, सीधे खरीदी-बिक्री नहीं हो सकती. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि खनन कंपनी सीधे आदिवासियों से स्टाम्प पेपर पर जमीनें खरीदी गईं, जो नियम विरुद्ध है. इस जांच रिपोर्ट पर आज भी कार्यवाही लंबित है और कोयला खनन का काम लगातार जारी है.
हसदेव अरण्य के बारे में…
हसदेव जंगल (हसदेव अरण्य) छत्तीसगढ़ के उत्तरी कोरबा, दक्षिणी सरगुजा और सूरजपुर जिले के बीच में स्थित है. लगभग 1,70,000 हेक्टेयर में फैला यह जंगल अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है. वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट आॅफ इंडिया की साल 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक, हसदेव अरण्य 10 हजार से अधिक आविवासियों का घर है. खनन के कारण इन आदिवासियों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है. हसदेव अरण्य में 82 तरह के पक्षी, दुर्लभ प्रजाति की तितलियां और 167 प्रकार के पेड़ व वनस्पतियां पाई जाती हैं. साल 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के केवल 1 फीसदी हाथी छत्तीसगढ़ में हैं, लेकिन हाथियों के खिलाफ अपराध की 15 फीसदी से ज्यादा घटनाएं यहीं दर्ज की गई हैं. अगर नई खदानों को मंजूरी मिलती है और जंगल कटते हैं तो हाथियों के रहने की जगह खत्म हो जाएगी और इंसानों से उनका आमना-सामना और संघर्ष बढ़ जाएगा. हसदेव अरण्य क्षेत्र में पहले से ही कोयले की 23 खदानें मौजूद हैं. साल 2009 में केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने इसे ‘नो-गो जोन’ की कैटगरी में डाल दिया था. इसके बावजूद, कई माइनिंग प्रोजेक्ट को मंजूरी दी गई, क्योंकि नो-गो नीति कभी पूरी तरह लागू नहीं हो सकी. यहां रहने वाले आदिवासियों का मानना है कि कोल आवंटन का विस्तार अवैध है.
क्या है विवाद?
छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार ने 6 अप्रैल 2022 को एक प्रस्ताव को मंजूरी दी है. इसके तहत, हसदेव क्षेत्र में स्थित परसा कोल ब्लॉक परसा ईस्ट और केते बासन कोल ब्लॉक का विस्तार होगा. सीधी सी बात इतनी है कि जंगलों को काटा जाएगा और उन जगहों को पर कोयले की खदानें बनाकर कोयला खोदा जाएगा. स्थानीय लोग और वहां रहने वाले आदिवासी इस आवंटन का विरोध कर रहे हैं. पिछले 10 सालों में हसदेव के अलग-अलग इलाकों में जंगल काटने का विरोध चल रहा है. कई स्थानीय संगठनों ने जंगल बचाने के लिए संघर्ष किया है और आज भी कर रहे हैं. विरोध के बावजूद कोल ब्लॉक का आवंटन कर दिए जाने की वजह से स्थानीय लोग बेहद नाराज हैं. आदिवासियों को अपने घर और जमीन गंवाने का डर है. वहीं, हजारों परिवार अपने विस्थापन को लेकर चिंतित हैं. कोल ब्लॉक के विस्तार की वजह से जंगलों को काटा जाना है.
सरकारी अनुमान के मुताबिक, लगभग 85 हजार पेड़ काटे जाएंगे. वहीं स्थानीय लोगों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि हसदेव इलाके में कोल ब्लॉक के विस्तार के लिए 2 लाख से साढ़े चार लाख पेड़ तक काटे जा सकते हैं. इससे न सिर्फ बड़ी संख्या में पेड़ों का नुकसान होगा बल्कि वहां रहने वाले पशु-पक्षियों के जीवन पर भी बड़ा खतरा खड़ा हो जाएगा. परसा कोयला खदान का इलाका 1252.447 हेक्टेयर का है. इसमें से 841.538 हेक्टेयर इलाका जंगल में है. यह खदान राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित है. राजस्थान की सरकार ने अडानी ग्रुप से करार करते हुए खदान का काम उसके हवाले कर दिया है. इसके अलावा, राजस्थान को ही केते बासन का इलाका भी खनन के लिए आवंटित है. इसके खिलाफ हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केस भी चल रहा है.
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