नवाखाई : नई फसल का उत्स

पीयूष कुमार

नुष्य के स्थायी जीवन का आधार खेती है. भोजन की तलाश में आदिम युग की भटकन लंबे समय तक चली और तब जाकर इंसान को खेती में ठौर मिला है और उसके आधार पर अब तक की प्रगति दर्ज हुई है. जाहिर है, इसे प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और उत्सव का विषय होना ही था. इसलिए दुनियाभर में लोक उत्सवों का मूल आधार फसल के होने की खुशी है. भारत में हम यह बिहू, पोंगल, बैसाखी, ओणम और नयाखाई/ नवाखाई/नवाखानी के रूप में देख सकते हैं.

नवाखाई मध्य छत्तीसगढ़ में दशहरे के दिन या उसके एक दिन पूर्व नवमी को मनाया जाता है. यही लगभग महीने भर पहले पश्चिमी ओडिशा में और लगभग पंद्र्रह दिन पूर्व बस्तर में मनाया गया है. यूं तो छत्तीसगढ़ में अक्षय तृतीया को खेती का आरंभ माना जाना चाहिए. क्योंकि उसी दिन अगली फसल के लिए बीजों का चयन किया जाता है. पर खेती में उत्सव का पहला पड़ाव आता है हरेली अमावस्या पर, जब प्रारंभिक कृषि कार्य पहली बार विराम लेता है. यहां से नवाखाई तक फसल की सुरक्षा और अन्य कार्यों का परिणाम धान की बालियों में चमकने लगता है. तब प्राकृतिक खुशी उमंगित होती है और नए सत्र की नई फसल का यह उत्सव मनाया जाता है.

फाइल फोटो

मध्य छत्तीसगढ में नवाखाई/नवाखानी का उत्सव कुछ लोग नवमी को मनाते हैं तो लोग कुछ आज दशहरे के दिन. हमारे घर में दशहरे के दिन मनाया जाता है. सुबह-सुबह खेत से नई बालियां घर आ गयी हैं. इन बालियों के दाने तसमई (खीर) और चावल मे डाले जायेंगे. इधर दाल-भात, तरकारी पूड़ी, चौसला और उड़द दाल का बड़ा बना है. खेत में फसल ठीक से हो जाने की यह आदिम प्रसन्नता है. क्योंकि महीने भर बाद उसे काटना है और कोठार भरना है. नवाखाई का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि यही एक त्योहार है, जिसमें परिवार के सारे लोग चाहे वे दुनिया में कहीं भी रहते हों, अनिवार्य रूप से अपने पुश्तैनी घर में आते हैं. नवाखानी पर घर का मुखिया या बुजुर्ग कुलदेवता को भोग लगाता है. यह कुलदेवता लोक सृजित प्राकृतिक शक्ति है. गांवों में पूजन की पूरी पारंपरिक प्रक्रिया है. इसके बाद उत्सव आरम्भ होता है.

फाइल फोटो

यह लोक का अपना परब है. यह त्योहार कृषि से सम्बद्ध हैं और इसका अधिक उत्साह लोक में, गांवों में या कहें कृषि से जुड़े लोगों में दिखता है. आज नगरीयकरण और गांव से बढ़ती दूरी ने इस पर्व के मूल स्वरूप को किसी हद तक जरूर कम कर दिया है और कुछ फर्क दिखने लगा है. जैसे कि अब नौकरी में जो बाहर है, वह पहले की तरह सम्मिलित नहीं हो पाते हैं या बहुत से परिवार जो खेती से कट गए हैं वे उत्सव को हमारी तरह प्रतीकात्मक रूप में अपने घरों में मनाने लगे हैं. बहरहाल, हमारी संस्कृति का यह उत्स बचा रहे, माटी से जुड़ाव बना रहे. किसानी और किसान बचे रहें. कोई भूखा न रहे. प्रकृति सुरक्षित हो, सभी समृद्ध हो, नवाखाई पर यही कामना है.

( लेखक शासकीय पीजी कॉलेज, आरंग, रायपुर में सहायक प्राध्यापक के पद पर पदस्थ हैं )
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