बीए तक पढ़े थे ‘मास्टर जी’ और एमए की कक्षाओं में पढ़ाए जाते थे उनके लिखे निबंध

छत्तीसगढ़ गाथा डेस्क/

मास्टर जी यानी पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी. बख्शी जी छत्तीसगढ़ ही नहीं देश के महान साहित्यकारों में से एक हैं. उन्होंने देश की सबसे प्रतिष्ठित एवं कालजयी साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ का संपादन कर राज्य का गौरव बढ़ाया है. बख्शी जी केवल बी.ए. तक पढ़े थे, लेकिन उनके लिखे निबंध एम.ए. की कक्षाओं में पढ़ाए जाते थे. वे स्वयं कॉलेज में एम.ए. के विद्यार्थियों को पढ़ाते थे.

बख्शी जी का जन्म 27 मई 1894 को राजनांदगांव के खैरागढ़ में एक प्रतिठित और साहित्यप्रेमी परिवार में हुआ. उनके पिताजी का नाम पुन्नालाल बख्शी और माताजी का नाम मनोरमा देवी था. बख्शीजी की प्रारंभिक शिक्षा खैरागढ़ में हुई. जब वे मिडिल स्कूल में पढ़ते थे तो उनके प्रधानपाठक पंडित रविशंकर शुक्ल थे, जो बाद में वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

बख्शीजी विद्यार्थी जीवन में एक मेधावी छात्र थे. प्रायमरी स्कूल पास करने के बाद ही उन्हें कथा-कहानी का चस्का लग चुका था. वे स्कूल से भागकर श्मशान घाट के एकांत में ‘चंद्रकांता’ उपन्यास पढ़ा करते थे. पढ़ते-पढ़ते उनकी रुचि लिखने की ओर हुई. 1911 में एक अंग्रेजी कहानी का हिंदी अनुवाद ‘हितकारिणी’ में प्रकाशित हुआ. इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.

1912 में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने मैट्रिक की परीक्षा पास की और आगे की पढ़ाई के लिए सेंट्रल हिंदू कॉलेज, काशी में चले गए. वहां से उन्होंने 1916 में बीए पास किया. उन्हें काशी में पं. मदनमोहन मालवीय, पारसनाथ सिंह तथा आत्माराम खरे जैसी महान विभूतियों का सान्निध्य मिला.

उनका विवाह लक्ष्मीदेवी से हुआ. वे एक आदर्श गृहिणी थीं. उन्होंने घर एवं परिवार का संपूर्ण दायित्व अपने ऊपर लेकर बख्शीजी को सांसारिक उत्तरदायित्वों से पूरी तरह मुक्त कर दिया, जिससे कि वे लिखने-पढ़ने में अपना सारा समय लगा सकें. यही कारण है कि बख्शीजी उन्हें गृहलक्ष्मी कहते थे.

बीए की परीक्षा पास करने के बाद ही बख्शी जी की नियुक्ति राजनांदगांव के एक हाईस्कूल में शिक्षक के पद पर हो गई. उनकी रचनाएं ‘हितकारिणी’, ‘सरस्वती’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहीं.

साहित्यिक अभिरुचि होने से वे 1920 में इलाहाबाद चले गए, जहां वे सरस्वती के संपादक नियुक्त किए गए. सरस्वती उस समय की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मानी जाती थी. वह इंडियन प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित होती थी. इसमें किसी रचना का प्रकाशित होना उन दिनों साहित्यकारों के लिए बड़े गौरव की बात होती थी.

इसी दौरान द्विवेदी युग की जगह छायावादी युग ने ले लिया. जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का स्वागत पंडित पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने किया. बख्शी जी ने हिंदी में मौलिक कहानी लेखन को प्रोत्साहित किया. इसी समय उनका आलोचक तथा निबंधकार रूप भी सामने आया.

वे स्वभाव से सीधे-सादे किंतु स्वाभिमानी व्यक्ति थे. जैसे-जैसे उनकी प्रतिभा चमकने लगी उनके विरोधियों की संख्या भी बढ़ने लगी. जब उनके स्वाभिमान को चोट पहुंची तो उन्होंने 1925 में सरस्वती से त्यागपत्र देकर खैरागढ़ लौट आए. 1927 में बख्शी जी को पुन: सरस्वती के प्रमुख संपादक नियुक्त कर इलाहाबाद बुला लिया गया. 1929 तक उन्होंने इस दायित्व का कुशलतापूर्वक निर्वहन किया. उनके संपादन में 1928 में सरस्वती का विशेषांक बड़ी साज-धज के साथ प्रकाशित हुआ.

1929 में सरस्वती से त्यागपत्र देकर बख्शी जी ने अध्यापन को अपनी आजीविका के तौर पर चुना. 1934 तक उन्होंने कांकेर में अध्यापन किया. 1935 में वे अपने पैतृक ग्राम खैरागढ़ आ गए और 1949 तक विक्टोरिया हाईस्कूल, खैरागढ़ में अंग्रेजी अध्यापक के रूप में कार्य किया. इनका संबंध इंडियन प्रेस से लगातार बना रहा. उन्होंने इंडियन प्रेस के लिए कुछ पाठ्यपुस्तकें संपादित किए.

इस बीच उनकी पुस्तकें ‘प्रदीप’ और ‘अश्रुदल’ प्रकाशित हुई. उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक ‘प्रायश्चित’ थी. यह बेल्जियम के लेखक मारिस मेटरलिक के नाटक का हिंदी अनुवाद थी. बख्शी जी 1952 से 1956 तक खैरागढ़ से ही सरस्वती का संपादन करते रहे. 1958-59 में ‘शतदल’ तथा कहानी संग्रह ‘झलमला’ प्रकाशित हुई. बख्शी जी 1949 से 1957 तक खैरागढ़ राजकुमारियों को ट्यूशन पढ़ाते थे. उनके साहित्यिक योगदान को देखते हुए 1959 में राजनांदगांव के दिग्विजय कॉलेज में उन्हें प्राध्यापक नियुक्त किया गया. यद्यपि वे केवल बी.ए. तक पढ़े थे पर उनके निबंध एम.ए. की कक्षाओं में पढ़ाए जाते थे. वे स्वयं एम.ए. के विद्यार्थियों को पढ़ाते भी थे.

1949 में बख्शी जी को अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से विभूषित किया गया. 1950 में वे मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति चुने गए. उन्होंने कुछ समय तक रायपुर से निकलने वाले दैनिक समाचार पत्र महाकोशल का संपादन किया था. 1960 में सागर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डीलिट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया. मध्यप्रदेश शासन तथा मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन ने भी उन्हें सम्मानित किया.

बख्शी जी ने अपना साहित्यिक जीवन एक कवि के रूप में प्रारंभ किया था. किंतु उन्हें ख्याति मिली एक निबंधकार के रूप में. उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं विश्व साहित्य, पंचपात्र, हिंदी साहित्य विमर्श, साहित्य चर्चा, मंजरी, बिखरे पन्ने, हिंदी कथा साहित्य, मेरा देश, मेरे प्रिय निबंध, समस्या और समाधान, नवरात्र, हिंदी साहित्य एक ऐतिहासिक समीक्षा आदि. उनके लिखे हुए भावपूर्ण निबंध ‘कारी’ के आधार पर दाऊ रामचंद्र देशमुख ने कारी लोकनाट्य बनाया, जिसे बहुत प्रसिद्धि मिली. बख्शी जी की कहानी ‘झलमला’ कालजयी कहानी मानी जाती है.

28 दिसंबर 1971 को रायपुर में बख्शी जी का देहावसान हो गया. वे एक सफल संपादक, भावुक कवि, कुशल कहानीकार, तटस्थ आलोचक एवं आदर्श शिक्षक थे. वे राजनीति एवं दलबंदियों से दूर रह कर जीवन पर्यन्त साहित्य सेवा में लगे रहे. उनके सभी मित्र उन्हें मास्टर जी कहकर संबोधित करते थे. उनकी इच्छा थी कि वे इस जन्म में तो मास्टरजी रहें ही, अगले जन्म में भी मास्टर जी ही बनें.

छत्तीसगढ़ शासन, स्कूल शिक्षा विभाग ने उनकी याद में राज्य स्तरीय पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्मृति शिक्षक सम्मान स्थापित किया है. कहानी में निबंध और निबंध में कहानी के समन्वय शैली के जन्मदाता बख्शी जी के नाम पर पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर में बख्शी शोधपीठ तथा भिलाई में बख्शी सृजनपीठ की स्थापना की गई है. राजनांदगांव के त्रिवेणी परिसर में बख्शी जी की मूर्ति लगाई गई है.
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