फाता या पखवारी : कृतज्ञता की संस्कृति

पीयूष कुमार/

त्तीसगढ़ की सबसे बड़ी पहचान उसकी उदात्त संस्कृति है. यह संस्कृति यहां की लोकमान्यताओं और परंपराओं में आज भी अन्य जगहों के मुकाबले अधिक बची हुई है. यहां की हरियर धरती और समाज जो लंबे समय तक बाहरी प्रभाव से संक्रमित नहीं हुआ था, इस बचाव की बड़ी वजह है.

छत्तीसगढ़ की धरती ने सदैव ही स्वयं से ज्यादा दूसरों का खयाल रखा है. यह यहां के लोक में आज भी दिखता है. इसी छत्तीसगढी उद्दात्तता का एक रूप है फाता या पखवारी या धान का पिंजरा.

किसान धरती पर मेहनत करता है और उसे अपने पसीने से सींचता है. पानी मिलने, न मिलने की आशंकाओं के बीच अपनी खड़ी तैयार फसल को बड़े सुकून से देखता है. अब उसे फसल काटना है. पर उसे याद है कि उसे प्रकृति को कृतज्ञता व्यक्त करना है. यह कृतज्ञता इस धान के पिंजरे में जाहिर होती है.

धान के कोमल पौधों को लेकर विभिन्न सुंदर डिजाइनों में इसे गूंथा जाता है और यह धान का पिंजरा बनाकर घर में या घर के बाहर इसे लटका दिया जाता है, जिसे पक्षी खासकर गोड़ेला (गौरैया) आ आ कर चुगती है.

वैसे तो पिंजरा कहने से इसका अर्थ बंधन का आता है जिसमें स्वतंत्रता को खारिज किया जाता है, लेकिन यह खुला पिंजरा है, जहां चिड़िया कई दिनों तक आकर दाना चुगती रहती है. यह पूरा दृश्य ही अद्भुत है. धान के इस पिंजरे के लिए हमारे यहां छत्तीसगढी में एक कहावत प्रचलित है- ‘जेखर घर मा पिंजरा…ओखर घर मा लेवना..!’ अर्थात जिसके घर मे धान का पिंजरा रहता है, उसके घर का भंडार भरा रहता है.

पिंजरा बनाना आसान काम नहीं है. यह कलात्मक होता है, जिसे अनुभवी किसान ही बना पाते हैं. धान मिंजाई के समय या बाद में भी घर-आंगन में पिंजरा बांधने की परंपरा है. जैसा कि उल्लेख है- कातिक आये ले संगी/घर-घर पिंजरा सजाएन हो…! घर-दुवार मा बांधेन सुग्घर/पिंजरा तोरन पताका ओ..! अर्थात कार्तिक का महीना आ गया है साथी, घर- घर पिंजरा सजा लिया है, बांध लिया है जो तोरण और पताका की तरह शोभायमान हो रहा है.

एक श्लोक है-
अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम्

यह सर्वोच्च भावना है कि प्रकृति के सहस्तित्व को मनुष्य समझे. मनुष्य का धर्म दया नहीं सेवा है. मनुष्यता का यह गुण प्राचीनकाल से लोक और ग्रंथों में कहा गया है. जिसे छत्तीसगढ़ का अन्नदाता स्वत:स्फूर्त निभाता आ रहा है.

यह गंभीर चिंता का विषय है कि अब चिड़िया और अन्नदाता दोनों के अस्तित्व पर संकट दिखने लगा है. तीव्र भौतिक विकास ने हमें सुविधाभोगी तो बना दिया पर हमारे सहृदयता को कम भी किया है. ऐसे में फाता या पखवारी की यह संस्कृति हमें हमारे मनुष्य को बचाये रखने का संदेश देती है. यह भावात्मक संस्कृति तब बेहतर महसूस की जा सकती है, जब कोई गौरैया कहीं से आकर इन पिंजरों में से दाना चुगती है और फिर खुशी से चीं…चीं…करती उड़ जाती है.

 

(लेखक शासकीय पीजी कॉलेज आरंग, जिला रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं.)
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