राजेश गनोदवाले/
‘खोखो पारा’ अलग ढंग का नाम. रायपुर एक प्रकार से पारों का शहर है. नयापारा, छोटापारा, आमापारा, तात्यापारा, बंधवापारा, बढ़ईपारा, बूढ़ापारा, बैजनाथपारा, केलकरपारा, फोकटपारा, मौदहापारा और-खोखो पारा. पारा यानी मुहल्ला. इन नामों से उस इलाके को क्यों जाना जाता है? मैं नहीं जानता. लेकिन ऐसा कहे जाने के पीछे कोई न कोई वजह यकीनन है! नामकरण के पीछे की लोकमान्यता या कारण तलाश करना इतिहासकारों का अधिकार क्षेत्र है. तो, रायपुर शहर के जो पुराने मुहल्ले हैं उनमें से एक है-‘खो खो’ पारा. प्राचीन रायपुर का एक हिस्सा. राजधानी के आतंक से मानों बाहर. यहां की जीवन-लय भी यथावत है. कोई बड़ा परिवर्तन नहीं. बारीकी से निहारें तो पता लगेगा जिंदगी जैसे ठहरी हुई है! लोगों के रहनावे में भी वही ग्राम-बोध!
मैंने कभी भी खो-खो पारा से गुजरते हुए उसे ‘खो’ नहीं किया. जब कभी गुजरा, पर्यटक जैसा मन लेकर. सैर करने जिन सड़कों की तरफ जाना अच्छा लगता है उनमें एक इलाका यह भी है. अपने अनगढ़ पन की वजह से कब यह पसंदीदा मुहल्लों में शुमार हो गया, कहना मुश्किल है! पुराने मुहल्लों से गुजरते हुए उसे निहारना, प्रात: दिनचर्या का हिस्सा है! पुराने घरों को देखता हूं-और उनकी दीवारों या बुनावट को. ऐसे में जो अब खत्म हो गया वह दिखाई दे, तो मन खुश हो लेता है! इस राह से गुजरते अचानक एक घर पर टंगी रोचक तख़्ती देखी!
घर से जुड़ा बाहरी कमरा जिसमें दरवाजे की जगह शटर लगा हुआ था, वहीं सूचना देती इस तख्ती ने बेचैनी ला दी! प्रात: भ्रमण के लिए एक इलाके की तरफ निरन्तर जाने का नियम नहीं है! कभी कहीं, तो किसी दिन कहीं! लेकिन इस तख़्ती के संदेश का ही यह असर था कि मैंने अगले कुछ दिन इसी इलाके की सैर में गुजारे. रोजाना वह तख़्ती दिखाई पड़ती. रोजाना मन में खयाल आते! तख़्ती जो कहना चाहती थी वह देखने में तो ऊपरी तौर पर एक संदेश मात्र था. जरा अंकित संदेश पर गौर करें :
‘बेचना है दो पल्ले वाला चार दरवाजा.’
आमतौर पर खरीदने-बेचने की तख्तियां दिख जाया करती हैं. लेकिन उनकी ओर ध्यान नहीं जाता. पर, इस तख्ती ने रोक लिया! तख़्ती जो कहना चाहती थी वह देखने में ऊपरी तौर पर संदेश मात्र था. मैं उसे पढ़ कर थोड़ा ठिठ्का और आगे बढ़ तो गया, लेकिन मन जैसे वहीं छूट गया था! बेचना है- ‘दो पल्ले वाला चार दरवाजा.’
ये पहली ऐसी सूचना पट्टी थी जिसने भीतर हलचल मचा दी. पांच शब्दों के इस वाक्य में जीवन-सम्बन्धों की समूची सरगम किसी शोकगीत की तरह सुनाई देने लगी!
मसलन दरवाजा तो बिक रहा है.
‘कहां?’
– घर पर!
‘पर कौन सा?’
– दो पल्ले वाला!
यानी अब दो पल्ले का चलन खत्म! और अभी भी ऐसे दरवाजे हैं, जिसमें दो पल्ले इस्तेमाल हुआ करते थे. अर्थात इस घर मालिक को उन लोगों की दरकार है जो ‘दो पल्लों’ की अहमियत जानते हैं. फिर उनके पास ऐसे दरवाजे कुल चार हैं. सम्भवत: इसीलिये विक्रेता को स्पष्ट करना पड़ा होगा कि जो दरवाजा उसके पास हैं वह कहने को तो दरवाजा ही है. लेकिन वैसा नहीं, जैसा अब बनता, बिकता है! जो दरवाजा वह बेचना चाहता है उसमें दो पल्ले लगे हुए हैं. यानी वे ही आएं, जो ‘दो पल्ले को जानते हैं! जो घरों में रहते है, फ़्लैट में नहीं!’
‘दो’
घर इस दौर में किसी के लिये भी आसानी से सम्भव न होने वाला स्वप्न है. डॉ. बशीर बद्र कहते हैं : लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में.
जीवन भर की जमा पूंजी लगाकर मध्यम आदमी अपनी छत हो और अपना आकाश, यह विचार संजोता है. वर्तमान दौर इवेंट का, एक्सपो का है. इन दिनों ‘घर’, रियल इस्टेट आदि नामों को साधने वालों की बपौती हैं. अब जहां आपके घर का स्वप्न कोई और साकार करता है! और आप उस मुताबिक अपना रहवास तलाशते हैं. अब घर बाद में, पहले उसका ब्रॉशर खरीदकर लाने का चलन है! आज बहुरंगी दुनिया में घर की परिभाषाएं भी बदल गई हैं. बाजार ने डेढ़ बेडरूम के मकान रच दिए हैं! जैसा मकान वैसी सहूलियतें. जब मकान का ढांचा बदलेगा तो, बेशक बहुत-सी बातें बदलेंगी. इन बहुत सी बातों में ‘दरवाजा’ भी एक कड़ी है! जाहिर है फ्लैट हो या स्वतंत्र मकान, ‘एक पल्ला’ दरवाजा ही चलन में है! अच्छी नक्काशीदार, लेकिन एक पल्ला ही मिलेगा. हैंडिल वाला. सिर्फ एक पल्ले का दरवाजा. जहां सांकल के स्थान पर हैंडिल! वहीं नींचे कहीं चाबी की जगह! न दिखने वाला ताला! ना लगाने का सुख और ना खोलने का! यह नए दौर का द्वार है, चौखट रहित दरवाजा. चौखट नहीं तो द्वार-चार का क्या होता होगा? लांघने की रीति कैसे सम्भव होती होगी? या सिर्फ प्रतीकात्मक! जैसे आज आवाजाही के संबंध प्रतीक में ढल गए हैं!
क्या पिछले कुछ समय से आई जीवन तब्दीली से इसको जोड़कर देखें? आज सम्बन्ध भी इन दरवाजों की तरह सिकुड़ रहे हैं! सारा कुछ एक पल्ला दरवाजा की तरह एक पक्षीय है. घर तो मजबूरी में छोटे किये जा रहे या खरीदे जा रहे हैं. लेकिन पारिवारिक सम्बन्धों वाला मन रूपी पल्ला भी निरंतर छोटा होने लगा है. जहां साझा परिवार है वहां भी सबने ‘अपने-अपने आंगन’ खींच दिये हैं! ठीक इसके उलट जहां भौगोलिक स्पेस विशाल है वहां मन का भूगोल सिकुड़ने लगा है. विडम्बना देखें कि दरवाजे (स्टेटस) का आकार तो विशाल है, लेकिन ह्रदय का उतना ही कम. शायद एक पल्ले से भी छोटा. ऊपरी तौर पर खुले हुए दो पल्ले. हकीकत में जाएं तो सम्बन्ध की आवाजाही शून्य. यानी किस काम का ऐसा एक पल्ला भी?
‘तीन’
यानी ‘दरवाजा’ दृश्य में है तो, मगर न होने की तरह! कभी-कभी वह खुला हुआ दरवाजा दीवार की शक्ल में भी दिखता है. जहां से आने-जाने की कोशिश की जाए तो सिर टकराने लगता है! और कमरे को पड़ोस से जोड़ने का विश्वास जगाती, दो पल्ले वाली, सुंदर खिड़की भी मूक दर्शक बन गयी हैं! दिखती तो है कि पड़ोस की ओर खुल रही है लेकिन पड़ोस से जीवन-सम्बन्धों की लय को बेतरतीब करती हुई! इन खिलखिलाती खिड़कियों से बीते दौर में ‘एक कटोरी स्वाद’ अक्सर उधर से इधर और इधर से उधर सरक कर निकल जाया करता था. अब खिड़कियों से संबंधों के हाथ नहीं बढ़ते! और कहीं बढ़ने वाला हाथ दिखे भी तो खिड़कियां खुलते नहीं दीखतीं!
दो पल्ले वाले घरों ने सुख-दुख की कितनी कहानियां देखी सुनीं होंगी. कभी दरवाजा परिवार को थामने वाला एक अवसर भी था. रोजमर्रा के विभिन्न स्वर इसके आरपार आसानी से निकल जाते थे और आपसी सम्बन्धों का सामूहिक गान भी हम इसी बहाने सुन लिया करते थे! सब कमरे आपस में जुड़े हुए. जैसे कमरे न हों, शरीर के अंग हों. सुंदर-सुंदर दरवाजे. आड़ी पट्टी, खड़ी पट्टी, चौखाना, छोटे-छोटे खांचे वाले. मनोरम रूपाकार के. प्राय: काला रंग, अलसी तेल पिलाए गये. चौरस खांचों के मध्य पीतल की नोकदार छतरी वाले भी. ऊपरी सांकल वाले तो किसी में नीचे भी सांकल. सांकल खट्खटाना, खोलना. अक्सर ‘सांकल खोल दो’ का अनुरोध किसी बड़े से करते दिखाई देते बच्चे. कानों में रस घोलती सांकल की आवाजें. लगाते समय बुझी-बुझी सी एक दबी हुई ध्वनि और जब सांकल खोलने की बारी आती तो खिलखिलाहट भरा स्वर! ताला खोलने, सांकल खट्खटाने की जानी-पहिचानी आवाज. आवाज से ही पता लग जाता था कि खटखटाहट परिचित की है या अपरिचित हाथों की. हमारे घर (बाड़ा) में एक मंदिर है. मंदिर दोपहर को बंद कर दिया जाता है. शाम चार बजे उसे खोलने के पहले सांकल खटखटाई जाती है. इसके पीछे बचपन से सुना हुआ है कि भगवान आराम करते हैं. सांकल बजाना जरूरी है ताकि वे आवाज से उठ जाएं! इसीलिए बिना सांकल बजाए जगाना यानी दरवाजा, खोलना ठीक नहीं! और हम भाई-बहनों में सुबह और दोपहर शयन के बाद दरवाजा खोलने को लेकर बड़ा कौतुक होता था! खटखटाहट का वह स्वर भी मुझे यह लिखते हुए अनायास याद हो आया! हमें लगता था कि हमारे सांकल बजाने से ही भगवान उठे हैं! वरना वे शायद थोड़ी देर और सो लेते! दादी रविवार को जब सुबह मंदिर खोलने जातीं तो हम लोग उस समय उन्हें रोकने की कोशिश किया करते थे! जब वे क्यों? कहती तो हमारा जवाब होता था. ‘आज छुट्टी है न! भगवान को थोड़ी देर और सोने दो.’
‘चार’
आज वे दरवाजे अतीत होने लगे हैं. अपने आसपास का मंजर याद करिये : इस कदर सुंदर बुनावट कि दरवाजा देखकर ही घर की उम्र का अंदाज हो जाए. पुराना बाड़ा, बड़ी-सी दुकानों में इनके प्रकार की भव्यता कुछ और अनोखी दिखाई पड़ती है. चौड़ाई का अनुपात जितना उतना ही पल्लों का संयोजन. ऐसे नक्काशीदार दरवाजे बनाना भी अपने आप में हुनर. हाथ की कलाकारी. सुंदर दस्तकारी. कवि कथाकार-विनोद कुमार शुक्ल के घर पर पुरानी बुनावट वाला ‘नौ बेड़िया दरवाजा’ लगा है. इसे बनवाने उन्हें बढ़ई पारा की खाक छाननी पड़ी थी. संयोग से पल्लों के प्रकारों को समझने वाला एक जानकार बढ़ई मिला और उसने बना दिया.
राज्य शासन के संस्कृति विभाग में भीतर बड़ा-सा काला दरवाजा है. नक्काशीदार. विभाग के तत्कालीन संचालक प्रदीप पंत की पारखी नजरों में यह अचानक आया और उसे उन्होंने प्रवेश मार्ग में फिट करवा दिया. बस्तर में कहीं यह औंधा पड़ा हुआ विभाग के पुरातत्व आधिकारियों को मिला था! बरसोंं पुराना वह बेहद खूबसूरत द्वार आज विभाग की शोभा है. दोनों पल्लों पर करीने से की गई कार्विंग उसके पुरा वैभव की मानों गवाही देती हैं. आंखें ठहर जाती हैं उस दरवाजा की सुषमा देख कर. अनुदान या कला के नाम पर विभाग में नियमित आने वाले संस्कृति मर्मज्ञों ने रुक कर, उस द्वार को कितनी दफा अपनी आँखों में भरा हों, पता नहीं!
सही मायनों में दरवाजा कहने पर मन में दो पल्ले वाली छवि ही दाखिल होती है. दो पल्ले, पहले एक को बंद किया फिर बाएं से दूसरा पल्ला भेड़ कर दाएं हाथ से सांकल चढ़ा दी. खोलते समय बायां पल्ला पहले. बजाय बंद करने या करवाने के पता नहीं क्यों, दरवाजा खोलना अधिक उत्तरदायी लगता है. आज दरवाजे बंद करवाने में अधिक रुचि देखी जाती हैं. जिनकी जिम्मेदारी समाज को कुछ देने या उसकी सेवा करनी है वहां भी पल्ला ठीक से खुलता नहीं दिखता! खुलता भी है तो सुपात्रों के लिये नहीं, किसी प्रिय विशेष के लिए!
‘पांच’
काफी समय पहले भोपाल के कथाकार श्री गोविंद मिश्र का एक उपन्यास आया था जिसका शीर्षक था-‘पांच आंगनों वाला घर’. मैं इस उपन्यास को पढ़ नहीं पाया, लेकिन ‘दो पल्ले वाला चार दरवाजा’ शीर्षक देख (उपन्यास) पढ़ने का मन बन गया. एक बार रायगढ़ में कविता पाठ करने आईं अनामिका को दूधाधारी मठ का भ्रमण कराते समय उन्हें वहां का एक विशाल द्वार दिखाया तो वे चकित थीं. झट उन्होंने उसके साथ अपनी फोटो खिंचवाई.
अपने दौर के बेहतरीन गजल गायक स्व. राहत अली (दलेर मेहंदी के गुरु) की लोकप्रिय गजल के बोल हैं : दरवाजा बंद कर लो अगर रात हो गई, समझेंगे हम के तुम से मुलाकात हो गई! राहत साब की इस शहर से बेहद आत्मीयता थीं. दिग्गज गवैये थे राहत अली, लेकिन वे जिस दौर में थे उस समय मीडिया नहीं था. चकित करता है इसे जानना कि दरवाजा कितनी स्मृतियों को खोल देता है. खोले जा रहा है! इन दरवाजों का एस्थेटिकली महत्व अब यह गुजरा जमाना हो चला है. जैसे घर में बुजुर्ग अपच होने लगे हैं वैसे ही पारंपरिक दरवाजे. इन धीर-गम्भीर दरवाजों को अगर कहीं सम्मान मिलता है तो खासी खुशी होती है! अब उस महत्व के दरवाजे अतीत हैं या अंतिम अवस्था में. नई पीढ़ी तो एकांगी है या फिर अपने में मस्त. उसके लिए ऐसे दरवाजे आऊटडेटेड हैं! फिर भी कहीं कोई उम्मीद से उन कद्रदानों की तलाश करता है तो पढ़ने मिल जाता है-
‘बेचना है दो पल्ले वाला चार दरवाजा.’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व लोक संस्कृति अध्येता हैं)
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