67 साल पहले शराबबंदी के लिए शुरू हुआ था आंदोलन एक महिला की जिद के सामने झुकी थी सरकार

छत्तीसगढ़ गाथा डेस्क/

त्तीसगढ़ में 28 मार्च 1953 को शराबबंदी के खिलाफ एक बड़े आंदोलन की शुरूआत हुई थी और उस आंदोलन का नेतृत्व एक महिला ने किया था, जिन्हें उनके सामाजिक सरोकार और शराबबंदी के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया. जी हां, हम बात कर रहे हैं, माता राजमोहिनी देवी की जिनकी 7 जुलाई को जयंती है.

राजमोहिनी देवी का जन्म 7 जुलाई 1904 को सरगुजा जिले के वाड्रफनगर में एक निर्धन कृषक परिवार में हुआ. उनके बचपन का नाम राजो और रजमन देवी था. पिता वीरदास व माता शीतला देवी की निर्धनता के कारण राजमोहिनी देवी को शिक्षा नहीं मिल पाई. कम उम्र में ही उनका ब्याह गोविंदपुर के रंजीत गौड़ से कर दिया गया. रंजीत शराब के आदी थे. वे अक्सर शराब पीकर आते और राजमोहिनी देवी के साथ मारपीट करते. कई सालों तक वे बर्दाश्त करती रहीं, लेकिन एक दिन उनके सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने न केवल पति, बल्कि नशे के खिलाफ भी हल्ला बोल दिया.

राजमोहिनी देवी के नेतृत्व में शराबबंदी को लेकर एक संगठन की नींव पड़ी जिसने 18 मार्च 1953 को मद्यपान करने वाले पुरुषों के खिलाफ खुली जंग का ऐलान कर दिया. उस समय न केवल सरगुजा, बल्कि पूरा छत्तीसगढ़ शराब के नशे में डूबा हुआ था. शराबबंदी के खिलाफ इस आंदोलन की शुरूआत राजमोहिनी देवी ने अपने गांव गोविंदपुर से ही की. संगठन की 15-20 महिलाएं शराब भट्ठी में गईं और उसे नेस्तनाबूद कर ही लौटीं. शराब पीने वालों के साथ उन्होंने किसी प्रकार की हिंसा नहीं की. उन्हें समझाना शुरू किया गया. महिलाओं ने अपनी बात शासन-प्रशासन तक भी पहुंचाई. हालांकि शुरूआती दिनों में उस पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई, लेकिन लंबे संघर्ष और राजमोहिनी देवी की जिद के आगे आखिरकार प्रशासन को झुकना पड़ा और सरगुजा जिले में शराब पीकर घूमने और शराब बनाने वालों पर जुर्माने का प्रावधान किया गया.

गांव के मंदिर में स्थापित राजमोहिनी देवी की प्रतिमा

महात्मा गांधी को मानती थीं गुरु

राजमोहिनी देवी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपना गुरु मानती थीं. 1951 के अकाल के समय गांधीजी के विचारों और आदर्शों से प्रभावित होकर उन्होंने एक जन आंदोलन चलाया, जिसे राजमोहिनी आंदोलन के नाम से जाना जाता है. आंदोलन का मुख्य उद्देश्य जनजातीय महिलाओं की स्वतंत्रता व स्वायत्तता सुनिश्चित करने के साथ ही उन्हें अंधविश्वास, रूढ़िवादिता से निकालना और समाज में व्याप्त मांसाहार व मदिरापान की समस्या को खत्म करना था.

80 हजार से ज्यादा लोग जुड़े

वे जादू-टोना और भूत-प्रेत को ढकोसला मानती थीं और इसे लेकर लोगों को जागरूक करती रहती थीं. उनके इस आंदोलन में 80 हजार से ज्यादा लोग जुड़ गए थे. बाद में यह आंदोलन एक अशासकीय संस्था ‘बापू धर्म सभा’ में परिवर्तित हो गया. इसके आश्रम न केवल छत्तीसगढ़, बल्कि उत्तरप्रदेश और बिहार में भी हैं. संस्था की कमान अब उनकी बेटी रामबाई ने सम्हाल रखी है. संस्था का नाम बदल कर अब राजमोहिनी देवी सेवा संस्थान कर दिया गया है.

सत्य-अहिंसा को हथियार बनाकर लड़ी लड़ाई

राजमोहिनी देवी ने सत्य और अहिंसा को हथियार बनाकर लड़ाई लड़ी. वे अपने हाथों से कातकर सूती वस्त्र पहनने के लिए लोगों को प्रेरित करती थीं. राजमोहिनी देवी पढ़ी-लिखी नहीं थीं, किंतु शिक्षा के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया. उन्होंने गोविंदपुर में एक स्कूल भी खोला था.

विनोबा के भूदान आंदोलन से जुड़ीं

आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन का प्रचार-प्रसार करते हुए राजमोहिनी देवी गांव-गांव घूमती रहीं और सैकड़ों एकड़ जमीन दान में प्राप्त की. 9 जुलाई 1958 को वे सरगुजा सर्वोदय समिति की पहली अध्यक्ष चुनी गईं. बापू धर्म सभा, आदिवासी सेवा मंडल के 23 आश्रमों का संचालन करते हुए वे मद्यनिषेध, गौ हत्या बंदी, धर्म परिवर्तन पर रोक के कार्यों से लगातार जुड़ी रहीं. उन्होंने ग्राम सभा से ग्राम स्वराज की कल्पना को लेकर आजीवन संघर्ष किया.

समाजसेवा के लिए पद्मश्री

समाज के कमजोर वर्गों की उत्कृष्ट सेवा और शराब विरोधी मुहिम चलाने के लिए 19 नवंबर 1986 में इंदिरा गांधी पुरस्कार एवं 25 मार्च 1989 को राजमोहिनी देवी को समाजसेवा के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया. 6 जनवरी 1994 को राजमोहिनी देवी का लंबी बीमारी के बाद निधन हुआ.

गांव में बनाया उनका मंदिर

राजमोहिनी देवी ने समाज के लिए जो कार्य किए लोग उसे दैवी चमत्कार मानते हैं. समाज के लोगों ने उन्हें दुर्गा का अवतार माना. प्रतापपुर विकासखंड के गोविंदपुर गांव में माता राजमोहिनी देवी का मंदिर बनाया गया है. इस मंदिर में दुर्गा की प्रतिमा के साथ राजमोहिनी देवी की भी प्रतिमा स्थापित की गई है. उनके नाम से राजमोहिनी देवी कॉलेज आॅफ एग्रीकल्चर एंड रिसर्च तथा राजमोहिनी देवी पीजी महिला महाविद्यालय की भी स्थापना अंबिकापुर में की गई है.
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