वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे

दिवाकर मुक्तिबोध/

‘शिष्य. स्पष्ट कह दूं कि मैं ब्रम्हराक्षस हूं किंतु फिर भी तुम्हारा गुरु हूं. मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए. अपने मानव जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला, किन्तु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता. इसलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गई और मैं ब्रम्हराक्षस के रुप में यहां विराजमान रहा.’

‘नया खून’ में जनवरी 1959 में प्रकाशित कहानी ‘ब्रम्हराक्षस का शिष्य’ मैंने बाबू साहेब से सुनी थी. बाबू साहेब यानी स्वर्गीय श्री गजानन माधव मुक्तिबोध, मेरे पिता जिन्हें हम सभी, दादा-दादी भी बाबू साहेब कहकर पुकारते थे. यह उन दिनों की बात है जब हम राजनांदगांव में थे – दिग्विजय कॉलेज वाले मकान में. वर्ष शायद 1960. तब हमें बाबू साहेब यह कहानी सुनाते थे पूरे हावभाव के साथ. हमें मालूम नहीं था कि यह उनकी लिखी हुई कहानी हैं. वे बताते भी नहीं थे. कहानी सुनने के दौरान ऐसा प्रभाव पड़ता था कि हम एक अलग दुनिया में खो जाते थे. विस्मित, स्तब्ध और एक तरह से संज्ञा शून्य. अपनी दुनिया में तभी लौटते थे जब कहानी खत्म हो जाती थी और ब्रम्हराक्षस अंतरध्यान हो जाता था.

बचपन की कुछ यादें ऐसी होती हैं जो कभी भुलायी नहीं जा सकती. कितनी भी उम्र हो जाए वे अंत:करण में जिंदा रहती हैं. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है. अक्सर कोई न कोई याद जोर मारने लग जाती है. अतीत को टटोलते हुए मन कुछ पल के लिए ही सही, हवा में उड़ने लगता है. ऐसा पिताजी को लेकर, मां को लेकर होता है. बाबू साहेब को गुजरे हुए अर्द्धशती बीत गई. 57 वर्ष हो गए. 11 सितंबर 1964 और मां शांता मुक्तिबोध 8 जुलाई 2010. हम खुशनसीब हंै कि हम पर मां का साया लंबे समय तक बना रहा. पिताजी के गुजरने के बाद लगभग 46 वर्षों तक वे हमारे लिए कवच का काम करती रहीं. हमारी शिक्षा-दीक्षा, नौकरी-चाकरी, शादी-ब्याह, बहू-बेटी, पोते-पोतियों सभी को उन्होंने अपने वात्सल्य से एक सूत्र में बांधे रखा. वात्सल्य का यह धागा अटूट हैं और हम सभी अभी भी साथ-साथ हैं और जिंदगी भर साथ-साथ रहने वाले हैं.

बहरहाल, पिताजी की याद करते हुए मैं कुछ सिलसिलेवार कहने की कोशिश करता हूं इसलिए ताकि कुछ क्रमबद्धता आए. वरना छुट-पुट प्रसंगों को पहले भी शब्दों में पिरोया जा चुका है. कुछ यत्र-तत्र छपा भी है.

जहां तक मेरी यादें जाती हैं, शुरू करता हूं नागपुर से. आज से करीब 65 बरस पूर्व, वर्ष शायद 1954-55. नागपुर की नयी शुक्रवारी में हमारा किराये का कच्चा मकान. मिट्टी का. छत कवेलू की. फर्श गोबर से लिपा-पुता. घर में भाई-बहनों में मैं, दिलीप, ऊषा एवं सरोज. हमें नहीं मालूम था हमारा कोई बड़ा भाई भी है जो उज्जैन में दादा-दादी के पास रहता है. एक दिन जब वे नयी शुक्रवारी के घर में आए तो पता चला बड़े भाई हैं-रमेश.

6-7 वर्ष की उम्र में कितनी समझदारी हो सकती है? इसलिए नयी शुक्रवारी के उन दिनों को लेकर मन में कुछ खास नहीं है. अलबत्ता मकान का स्वरूप और कुछ गतिविधियां जरूर ध्यान में आती हैं.

मसलन पिताजी आकाशवाणी में थे. रात में उन्हें घर लौटने में प्राय: विलंब हो जाता था. उनकी प्रतीक्षा में मां घर के बाहरी दरवाजे पर चौखट पर, घंटों बैठी रहती थी. कुछ टोटके भी करती थी, ताकि वे जल्दी घर लौटें. चुटकीभर नमक चौखट के दोनों सिरे पर बाएं-दाएं रखती थी. पता नहीं इस क्रिया में ऐसी क्या शक्ति थी. जाहिर है विश्वास जो उन्हें ताकत देता था. मनोबल बढ़ाता था. पिताजी देर रात लौटते. तब तक हम सो चुके होते. आंखों के सामने एक और दृश्य है-दूर कुएं से पिताजी रोज सुबह या शाम जब जैसी जरुरत पड़े, पानी भरकर लाते थे. दोनों हाथों में पीतल की दो बड़ी-बड़ी बाल्टियां लिए उनका चेहरा अभी भी आंखों के सामने हैं, पसीने से नहाया हुआ. बाल्टी से छलकता हुआ पानी, पसीने की बूंदे और तेज चाल.

उन दिनों की न भूलने वाली एक और घटना हैं-स्कूलिंग की. स्कूल में दाखिले के वक्त की. स्कूल का पहला दिन प्राय: सभी बच्चों के लिए भारी होता है. उनका जी घबराता है. रोना-धोना शुरू कर देते हैं. मां-बाप का हाथ नहीं छोड़ते. शिक्षकों को उन्हें चुप कराने, मनाने में पसीना आ जाता है. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. बल्कि अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही. एक दिन पिताजी मुझे गोदी में उठाकर स्कूल ले गए. कक्षा पहिली में दाखिले के लिए. कक्षा में जब तक वे साथ में थे, मैं दहशत में होने के बावजूद खामोश था. वे मुझे पुचकारते हुए, दिलासा देते रहे और फिर कक्षा के बाहर निकल गए. कुछ पल मैंने इंतजार किया और फिर जोर की रूलाई फूट पड़ी. शिक्षक रोकते, इसके पूर्व ही मैं कक्षा से बाहर. सड़क पर दूर पिताजी जाते हुए दिख पड़े. मैं रोते हुए उनके पीछे. पता नहीं कितना सफर तय हुआ. न जाने किस अहसास से एकाएक वे पलटे और पीछे मुझे देखकर हैरान रह गए. लौटे, मुझे गोद में लिया, पुचकारा, चुप कराया और फिर नीचे उतारकर उंगली पकड़कर मुझे घर ले आए.

स्कूल न जाने का परिणाम यह निकला कि मेरी बड़ी बहन जो उसी स्कूल में कक्षा तीसरी में पढ़ती थी, उसे मेरे साथ पहली में बैठाया गया. आज बड़ी बहन भी दुनिया में नहीं है. पर उसका मासूम त्याग व बालपन की तस्वीर दिलो-दिमाग में जस की तस है.

नयी शुक्रवारी के बारे में और ज्यादा कुछ याद नहीं. इतना जरूर है कि जाफरीनुमा कक्ष में बैठकें हुआ करती थीं, चाय-पानी का दौर चलता था. बैठकों में शामिल होने वाले पिताजी के मित्रों में मुझे शैलेंद्र कुमार जी का स्मरण है. नागपुर नवभारत के संपादक. एक कारोबारी भी थे मोटेजी. विचारों से कामरेड. उनके यहां हमारा आना-जाना काफी था. उनकी पत्नी वत्सला बाई मोटे मां की अच्छी सहेली थी. मुझे याद नहीं, स्वामी कृष्णानंद सोख्ता उस घर में आया करते थे. साप्ताहिक ‘नया खून’ के संपादक. विशाल व्यक्तित्व और दबंग आवाज. भैया बताते हैं-नयी शुक्रवारी की उस मकान में हमारे यहां आने वालों में प्रमुख थे सर्वश्री स्वामी कृष्णानंद सोख्ता, जीवनलाल वर्मा विद्रोही, प्रमोद वर्मा, शरद कोठारी, लज्जाशंकर हरदेनिया, के.के. श्रीवास्तव, श्रीकांत वर्मा, रामकृष्ण श्रीवास्तव, अनिल कुमार, मुस्तजर, भीष्म आर्य और नरेश मेहता.

स्वामी कृष्णानंद सोख्ता के बारे में याद हैं वे हमारे गणेशपेठ के मकान में अक्सर आया करते थे. जीवनलाल वर्मा व्रिदोही, प्रमोद वर्मा, रम्मू श्रीवास्तव, हरिशंकर परसाई, टी.आर. लूनावत, भाऊ समर्थ और प्रभात कुमार त्रिवारी (जबलपुर) इन विद्वानों के चेहरे याद हैं. लेकिन कांतिकुमार जैन जिनके संस्मरण बहुचर्चित माने जाते हैं, घर कभी नहीं आए. न नागपुर के दोनों मकानों में आए न राजनांदगांव में. बहरहाल घर में होने वाली साहित्यिक बहसों में और भी लोग शामिल रहते थे, पर अधिक कुछ स्मरण नहीं. सोख्ता जी का स्मरण इसलिए कुछ ज्यादा है क्योंकि वे आते ही हम लोग के साथ घुल मिल जाया करते थे. छोटे भाई दिलीप को कंधों पर बिठा लेते थे और इसी अवस्था में पिताजी के साथ चर्चा करते थे. चूंकि कच्ची उम्र दुनिया से बेखबर वाली होती है इसलिए साप्ताहिक ‘नया खून’ के बारे में हम विशेष कुछ जानते नहीं थे. यह उस समय का गंभीर वैचारिक साप्ताहिक पत्र था जिसकी महाराष्ट्र एवं महाराष्ट्र के बाहर, बुद्धिजीवियों की जमात में अच्छी पकड़ थी, प्रतिष्ठा थी.

गणेशपेठ निवास में दो घटनाएं स्मृतियों में बेहतर तरीके से कैद है-पहली- मेरी छोटी बहन सरोज से जुड़ी हुई है. बहुत सुंदर थी, घुघराले बाल थे उसके. एक बार उसे बुखार आया. पता नहीं कितने दिन चला. लेकिन एक दिन मां ने देखा वह बिस्तर पर नहीं थी. ढूंढा गया तो वह मकान से अलग-थलग, बाथरुम में फर्श पर दोनों घुटनों को मोड़कर, गठरीनुमा पड़ी हुई थी. शायद बुखार तेज था, बर्दाश्त नहीं हो रहा था, सो वह शरीर को ठंडा करने गुसलखाने में पहुंच गई थी. वह नहीं रही. उसके न रहने का सदमा, कैसा और कितना गहरा था, मैं नहीं जानता था अलबत्ता मां का रो-रोकर बुरा हाल था, और पिताजी गुमसुम से थे. अब सोचता हूं उन्होंने किस कदर अपने आपको संयमित रखा होगा, कैसे इस अपार दुख से उबरने की कोशिश की होगी.

दूसरा प्रसंग- प्रायमरी में पढ़ता था. कक्षा याद नहीं. एक दिन स्कूल से लौटा. मां ने खाना खाने बुलाया. रसोई में मैं और मां खाना खाने बैठे. खाते-खाते मां ने मुझे दाल परोसने के लिए गंजी में बड़ा चम्मच डाला तो उसमें एक मरी हुई छिपकली आ गई जो फूलकर काफी मोटी हो गई थी. छिपकली को देखते ही मां को मितली शुरू हो गई और भागकर गुसलखाने में चली गई और उल्टियां करने लगी. मुझ पर मरी छिपकली का कोई असर नहीं हुआ. मैं मजे से कटोरी में परोसी हुई दाल खाता रहा जब तक मां लौट न आई. मुझे उल्टियां नहीं हुई. कुछ भी विचित्र सा नहीं लगा. लेकिन तनिक स्वस्थ होने के बाद मां हाथ पकड़कर उसी अवस्था में पैदल जुम्मा टैंक के निकट स्थित ‘नया खून’ के दफ्तर ले गई. पिताजी को बाहर बुलाया, बताया. और फिर मुझे मेयो हॉस्पिटल में भर्ती कर दिया गया. शरीर से विष निकालने डाक्टरों ने क्या प्रयत्न किए नहीं मालूम. अलबत्ता मैं कुछ दिन तक अस्पताल में पड़ा रहा. दिन-दुनिया से बेखबर. मां-पिताजी की चिंता से बेखबर. मां को चूंकि उल्टियां हो गई थी इसलिए वे लगभग स्वस्थ थी. हालांकि वे भी अस्पताल में भर्ती थी. मेरी चिंता उन्हें खाए जा रही थी. उन्हें इस बात का अफसोस था अंगीठी पर रखी दाल की गंजी खुली क्यों छोड़ी. कैसे पता नहीं लगा कि छिपकली कब गिरी. कब से उबल रही थी. बहरहाल यह घटना दिमाग से कभी नहीं गई. छिपकली को देखता हूं, तो वह दिन याद आ जाता है. अब उसे देख घिन आने लगती है लेकिन मारने की कभी कोशिश नहीं करता. छिपलियां तो घर की दीवारों पर चिपकी रहती ही हैं. इसलिए उन्हें भी जिंदगी के हिस्से के रूप में देखता हूं, क्योंकि वे यादें ताजा करती हैं. अच्छी-बुरी जैसी भी.

इसके पूर्व का एक और प्रसंग- मकान गणेशपेठ का ही. शुक्रवारी से कुछ बेहतर. पक्का खुला मकान. बड़ा सा आॅगन. ऊपर छत. पतंगें उड़ाने के लिए और कटी पतंग को पकड़ने के लिए लगभग पूरा दिन हम छत पर ही बिताते थे. पतंगबाजी में खूब मजा आता था. मैं और बड़े भैय्या रमेश. मेरा काम चक्री पकड़ने का रहता था, पतंगे वे उड़ाया करते थे, पैच लड़ाते, काटते-कटते. जब भी कोई कटी पतंग हमारे छत के ऊपर से गुजरती थी, हम धागा पकड़ने केफेर में रहते थे. मुझे याद है एक बार जब ऐसी ही कटी पतंग को पकड़ने की कोशिश की, कुछ बड़े लड़के अपशब्दों की बौछार करते हुए घर में लड़ाई करने आ गए. वे काफी उत्तेजित थे और मारने-पिटने पर उतारू थे. मां ने किसी तरह समझाकर उन्हें विदा किया. हमें जो डांट पड़ी, वह किस्सा तो अलग है. इस घटना का ऐसा असर हुआ कि हम कुछ दिनों तक छत पर ही नहीं गए. न मंजा पकड़ा और न ही पतंगे उड़ाई.

पिताजी आकाशवाणी में ही थे. नया मध्यप्रदेश बनने के बाद उनका भोपाल ट्रांसफर हो गया. इस ट्रांसफर को लेकर वे काफी पसोपेश में थे. क्या किया जाए. जाए या नहीं. इस बीच सोख्ताजी के चक्कर यथावत थे. वे घर आते थे और पिताजी की अवस्था देखते थे. अंतत: पिताजी ने भोपाल जाना तय किया. उनका बिस्तर बंध गया. एक छोटी पेटी के साथ रस्सी से बंधा उनका बिस्तर हाल में रख दिया गया. शायद दोपहर की कोई ट्रेन थी. हम सब हाल में इकट्ठे थे. इस बीच सोख्ताजी आ गए. पता नहीं उनके बीच क्या बातचीत हुई. नतीजा यह निकला कि बिस्तर खोल दिया गया, पेटी अंदर चली गई और सामान फिर अपनी जगह पर रख दिया गया. पता चला पिताजी ने आकाशवाणी की नौकरी छोड़ दी और सोख्ताजी के अखबार में संपादक बन गए. लिखने-पढ़ने के लिए उन्हें नया ठिकाना मिला. यह उनके मन के अनुकूल बात थी. अब यह कहने की जरुरत नहीं कि ‘नया खून’ को नई प्रतिष्ठा मिली और वैचारिक पत्रकारिता को नया आयाम. साहित्य के अलावा नया खून सहित समय-समय पर साप्ताहिक पत्रों के लिए उनके द्वारा किया गया लेखन उन्हें श्रेष्ठ पत्रकार के रूप में भी स्थापित करता है.

नागपुर की यादें बस इतनी ही. उसके अंतिम दृश्य को याद करता हूं. आज भी जब कभी नागपुर रेलवे स्टेशन से गुजरता हूं, या रुकता हूं तो मुझे पिताजी सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए दिखाई देते हैं. हम लोग राजनांदगांव जाने के लिए पैसेंजर ट्रेन के डिब्बे में बैठे हुए थे. ट्रेन छूटने को ही थी कि पिताजी सीढ़ियों पर दिखाई दिए. मां की जान में जान आई. वे आए और ट्रेन चल पड़ी. वह दृश्य कैसे भुलाया जा सकता है?

अब बात सन 1957-58 की. हम राजनांदगांव के बसंतपुर में रहते थे. शहर से चंद किलोमीटर दूर बसा गांव. राजनांदगांव भी उन दिनों बड़ा गांव जैसा ही था. कस्बाई जैसा जहां कॉलेज थे, अस्पताल था, शालाएं थीं। शहरी चहल-पहल थी. शांत-अलसाया सा लेकिन सुंदर. दिल को सुकून देने वाली हवा बहती थी, लोगों में आपस में बड़ी आत्मीयता थी, भाईचारा था. पिताजी राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हुए थे और बसंतपुर से आना-जाना करते थे. कभी पैदल, कभी साइकिल से.

बसंतपुर में हमारा मकान था बढ़िया. बाहर परछी, परछी से सटा छोटा कमरा जो पिताजी की बैठक थी, दो लंबे कमरे और पीछे रसोई तथा रसोई के बाहरी दीवारों से सटा खूब बड़ा बगीचा जिसमें फलों के झाड़ थे, सब्जियां उगाई जाती थी. यह मकान चितलांगियाजी का था और बगीचा भी उनका. बसंतपुर के दिन वाकई बहुत खूबसूरत थे. उसका सुखद अहसास अभी तक कायम है.

बाबू साहेब को हमने गुस्से में कभी नहीं देखा. दिन-रात व्यस्तता के चलते हमारी पढ़ाई के बारे में पूछताछ करने या हमें पढ़ाने के लिए वक्त निकालना उनके लिए बहुत कठिन था. लेकिन वसंतपुर के मकान में रात्रि में कंदील की रोशनी में जब कभी वे हमें किताब कॉपी लेकर आने के लिए कहते थे, तो हमारी रूह कांप जाती थी. हालांकि वे हम पर कभी नाराज नहीं होते थे और न ही डांटते-फटकारते थे. हम पढ़ते कम थे पर उन्हें एतराज नहीं था. मैं और मेरी बड़ी बहन उषा नगर पालिका की प्राथमिक शाला के विद्यार्थी थे. पढ़ाई लिखाई में मैं सामान्य था लेकिन उषा से कुछ बेहतर. इसलिए पिताजी के सवालों का टूटा-फूटा सा जवाब मैं दे देता था. इससे उन्हें संतोष हो जाता था किन्तु उषा मूक बनी रहती थी इसलिए वह उनके गुस्से का शिकार बन जाती थी. उनका रौद्र रूप देखकर हम दोनों सहम जाते थे. यद्यपि गुस्सा शांत हो जाने के बाद वे हमें दुलारते भी थे. वक्त-वक्त पर मेरे साथ शतरंज खेलते थे. जानबूझकर मुझे जीताते थे. शाम को कॉलेज से घर आने के बाद शायद ही कभी शहर जाते हो. यानी उसके बाद उनका पूरा समय हमारा था. हमारे साथ वक्त बिताते. बाते करते या फिर हाथ में किताब या कागज कलम लेकर लिखने बैठ जाते. यह अच्छा था कि पढ़ाई-लिखाई का वह दौर न ज्यादा समय के लिए चलता था और न ज्यादा दिन चलता था. दिग्विजय कॉलेज परिसर वाले मकान में रहने के लिए आने के बाद वह खत्म हो गया. वक्त ने उन्हें वक्त नहीं दिया. वे बीमार पड़ गए.

वे कितने पारिवारिक थे, कितने संवेदनशील यह बहुतेरी घटनाओं से जाहिर है. एक प्रसंग है- वसंतपुर में पतंग उड़ाते- उड़ाते मैं पीछे हटता गया और अंत में मेरा पैर एक बड़े पत्थर से जा टकराया. हड्डी में चोट आई. कुछ दिनों में वह बहुत सूज गया और उसमें मवाद आ गया. सरकारी अस्पताल में डॉक्टर ने कहा चीरा लगाना पड़ेगा. दर्द के उन दिनों में पिताजी हर पल मेरे साथ रहे. अस्पताल लाना-ले-जाना, पास में बैठना-पुचकारना और आखिर में सरकारी अस्पताल में चीरा लगाते समय मुझे पकड़कर रखना. उन दिनों ऐसी छोटी-मोटी सर्जरी पर एनेस्थिया नहीं दिया जाता था. छोटे बच्चे इंजेक्शन से वैसे भी घबराते है और ऊपर से चीरा. भयानक क्षण थे. मेरी दर्द भरी चीखें और मजबूती से मेरे पैर पकड़े हुए घबराए से पिताजी. उनका चेहरा, वह दृश्य अभी भी आंखों के सामने है.

बसंतपुर में हम ज्यादा दिन नहीं रहे. शायद साल-डेढ़ साल. राजनांदगांव महाविद्यालय परिसर में अंतिम सिरे पर स्थित शीर्ण-जीर्ण लेकिन महलनुमा मकान में रंग-रोगन चल रहा था, हम यही शिफ्ट होने वाले थे. एक दिन शिफ्ट हो गए. पुराने जमाने के बड़े-बड़े कमरों और मंजिलों वाला नहीं था- नया मकान. दरअसल राजनांदगांव बहुत छोटी रियासत थी इसलिए महल भी साधारण थे. लेकिन तब भी उसका सौंदर्य अद्भुत था, हालांकि वह खुरदुरा था. शहर में रहते हुए गांव जैसा अहसास. सिंह द्वार, आम रास्ता था. सुबह-शाम खुलता-बंद होता. दरवाजों पर बड़ी-बड़ी कीलें ठुकी हुई थीं जो राजशाही की प्रतीक थीं. वे अभी भी वैसी ही हैं. इस द्वार से सबसे ज्यादा आते-जाते थे वे धोबी जिनके लिए दोनों तालाबों के घाट ज्यादा मुफीद थे. धोबीघाट पर कपड़े पटकने की ध्वनि में भी एक अलग तरह की मिठास थी. मकान की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से टकराती ध्वनियां मधुर संगीत का अहसास कराती थी. नीचे एक अलग-थलग कमरा जहां बड़े भैया रमेश पढ़ाई करते थे, दूसरे छोर पर प्रवेश कक्ष और ऊपर की मंजिल पर तीन हालनुमा कमरे, एक रसोई और खुली बालकनी. खिड़कियां बड़ी-बड़ी व दरवाजों के पल्ले भी रंग-बिरंगे कांच से दमकते हुए. पिताजी ने जिस कक्ष में अपनी बैठक जमाई वहां छत पर जाने के लिए चक्करदार सीढ़ियां थीं जो उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में’ प्रतीक के रूप में हैं. इसी कक्ष में वे लिखते-पढ़ते, आराम करते थे. जब कभी दादा-दादी राजनांदगांव आते, उनका डेरा भी यही लगता था. दादाजी के लिए पलंग था, दादी फर्श पर बिस्तर लगाकर सोती थी. यहां उनकी उपस्थिति के बावजूद लिखते या पढ़ते वक्त पिताजी की एकाग्रता भंग नहीं होती थी. शुरू-शुरू में दादाजी का पलंग प्रवेश द्वार यानी भूतल पर स्थित कक्ष में रखा गया था ताकि बाथरुम तक जाने के लिए उन्हें कष्ट न हो. लेकिन पिताजी के लिए यह भी एक प्रकार से मिनी बैठक ही थी. पिताजी के जीवन के ये सबसे अच्छे दिन थे.

वे देर रात तक लिखते और सुबह होने से पहले उठ जाते. करीब 4 बजे. हमें भी जगाते थे ताकि हम पढ़ने बैठें. लिखने के लिए बैठने के पूर्व चाय उनके लिए बेहद जरूरी थी. कोयला रहता था तो सिगड़ी जलाते थे या फिर रद्दी कागजों को जलाकर खुद चाय बनाते थे. कभी-कभी यह काम हम भी कर देते थे. सिगड़ी के आसपास बैठना, या फिर कागज जलाकर चाय बनाने में अलग आनंद था. आग की रोशनी में पिताजी का चेहरा दमकता रहता था. वे इत्मीनान से कंटर भर (पीतल का बड़ा गिलास) चाय पीते और फिर लिखने बैठ जाते थे. यह सिलसिला सुबह 8 बजे तक चलता था. फिर उनके कपड़े, इस्त्री करने का काम मेरा था. पैजामा-कुर्ता और कभी-कभी खादी की जैकेट भी.

दोपहर हो, शाम हो या फिर रात. लिखते-लिखते जब वे थक जाते, मुझसे जासूसी किताब मांगा करते तनाव मुक्त होने के लिए. मुझे उन दिनों जासूसी किताबें पढ़ने का इतना शौक था कि दिन में एक किताब खत्म हो जाती. जासूसी दुनिया, जासूसी पंजा, रहस्य, जे.बी. जासूस, गुप्तचर, मनोहर कहानियां आदि. लेखकों में इब्ने सफी बीए, ओमप्रकाश शर्मा, निरंजन चौधरी, बाबू देवकीनंदन खत्री आदि. जासूसी दुनिया के लेखक इब्ने सफी बी.ए. उन्हें पसंद थे और उनके पात्र कर्नल विनोद, केप्टन हमीद को वे याद करते थे. वेदप्रकाश काम्बोज के भी जासूसी उपन्यास उन्हें अच्छे लगते थे. हिन्दी में रहस्य -रोमांच के उपन्यासों के अलावा वे अंग्रेजी के डिटेक्टिव नॉवेल भी खूब पढ़ा करते थे. पैरी मेसन, आर्थर कानन डायल और भी बहुत सी किताबें वे पढ़ने के लिए कहीं से लाते थे. मेरे लिए उनकी यह पसंद एक सुरक्षित व्यवस्था थी क्योंकि मुझे जासूसी किताब को कापी के भीतर छिपाकर पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ती थी. मां की डाट-फटकार से भी, मैं बचा रहता था. मुझे तब और अच्छा लगता था जब वे मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर रेखाओं को पढ़ने की कोशिश करते. मेरी हथेली की रेखाएं बहुत कटी-पिटी हैं और अंगूठा काफी चौड़ा. मेरी मां के अंगूठे जैसा. वे तल्लीन होकर देखते थे, बताते कुछ नहीं थे. जाहिर है ज्योतिष भी उनकी रुचि का विषय था, साइंस की तरह.

पिताजी प्राय: रोज सुबह-सुबह, अखबार के आते ही, नीचे उतर आते थे और दादाजी को अखबार की खबरें पढ़कर सुनाया करते थे. खबरों पर लंबी-लंबी बाते होती थीं. घंटे दो घंटे कैसे निकल जाते थे, पता ही नहीं चलता था. कॉलेज से लौटने के बाद शाम को भी वे दादाजी के पास बैठते थे. बातें करते थे. हमारी दादी को पढ़ने का बहुत शौक था. पिताजी कॉलेज की लायब्रेरी से उनके लिए उपन्यास-कहानी संग्रह लेकर आते थे. मुझे पढ़ने का चस्का दादीजी की वजह से हुआ. किताबें आती थी, मैं भी देखता-परखता था. कुछ-कुछ पढ़ता भी था. बंकिम चटर्जी, शरतचंद्र, प्रेमचंद, कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी, आचार्य चतुरसेन, वृंदावन लाल वर्मा और यशपाल भी मेरे प्रिय लेखक थे.

बसंतपुर की तुलना में दिग्विजय कॉलेज के दिन और भी बेहतर थे. मित्रों के साथ साहित्यिक चर्चाओं का सिलसिला तेज हो गया था. दूसरे शहरों से आने वालों में प्रमुख थे शमशेर बहादुर सिंह, श्रीकांत वर्मा, हरिशंकर परसाई, आग्नेश्का कोलावस्का सोनी व विजय सोनी. प्राय: रोज आने वालों में ये प्रमुख थे- डॉ. पार्थ सारथी, अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक. कॉलेज में एकमात्र वे ही थे जिनसे प्राय: अंग्रेजी में वैचारिक बहस हुआ करती थी. डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी व उनका परिवार भी पास ही में रहता था पर वे शायद ही कभी आए. अलबत्ता पिताजी कभी-कभी उनके यहां जाया करते थे. वे भी हिन्दी पढ़ाते थे. शरद कोठारी, रमेश याग्निक, जसराज जैन, विनोद कुमार शुक्ल, निरंजन महावर, कन्हैयालाल अग्रवाल, अटल बिहारी दुबे, कॉमरेड किस्म के कुछ और लोग, जिनके नाम याद नहीं, आया जाया करते थे. कॉलेज के प्रिंसीपल किशोरीलाल शुक्ल भी घर आते थे. महफिल जमती थी, बातें खूब होती थीं. प्राय: शाम के बाद. पिताजी धार्मिक कर्मकांड पर कितना विश्वास रखते थे, मुझे नहीं मालूम. उन्हें मंदिर जाते न मैंने देखा न सुना. अलबत्ता दादाजी की गैरहाजिरी में या अस्वस्थ होने पर वे घर में पूजा जरूर करते थे, पूरे मंत्रोच्चार के साथ. होलिका दहन के दिन होली घर के बाहर सजाकर होली पूजा भी वे करते थे, बाकायदा धवल वस्त्र यानी धोती पहनकर. इसलिए वे नास्तिक तो नहीं थे, कितने आस्तिक वह थे, यह अब कौन तय कर सकता है? इतना जरूर कहा जा सकता है कि वामपंथी विचारधारा से सहमत होने का अर्थ नास्तिक होना नहीं है. ईश्वर में आस्था सबकी होती है, भले ही कोई कुछ भी कहे.

बहरहाल राजनांदगांव में जितना समय भी बीता था, सुखद था, बहुत सुखद. अभावग्रस्तता कभी इतनी विकट नहीं थी कि फाके करने की नौबत आए. वरन यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि राजनांदगांव में अर्थाभाव चिंतात्मक नहीं था. काम चल रहा था, मजे से चल रहा था. पिताजी खुश थे और हम सभी भी. छोटे थे, पढ़ते थे, खेलते-कूदते थे. सारा दिन खुशी-खुशी बीत जाता था. हमारे घर के आजू-बाजू में दो बड़े तालाब थे, हैं, जो अब और भी खुबसूरत हो गए हैं. पिताजी हमें सुबह तालाब में नहाने-तैरने ले जाते थे. तैरना हमने उन्हीं से सीखा. खुद अच्छे तैराक थे, दूर तक जाते थे. लौटने के बाद एक-एक करके हम भाई-बहनों को तैरना सीखाते थे. कभी-कभी साथ में मां भी हुआ करती थी. घंटे दो घंटे कैसे निकल जाते थे, पता ही नहीं चलता था.

चाय और बीड़ी के बाद पिताजी को भोजन में यदि सबसे अधिक प्रिय कोई चीज थी तो वह थी दाल. तुवर दाल. दाल के बिना उनका भोजन पूर्ण नहीं होता था. वे दाल खूब खाते थे. अंडे को कच्चे निगल लेते थे क्योंकि सवाल दूध की उपलब्धता का था.
उन्हें जब कभी समय मिलता, लिखने बैठ जाते थे. एक बैठक के बाद जब वे उठते थे, नीचे फर्श पर कटे-पिटे कागजों का ढेर पड़ा रहता था जिन्हें वे सहेजकर रद्दी की टोकरी में डाल देते थे. मेरी लिखावट कुछ बेहतर थी इसलिए कई बार अपनी कविताओं की कॉपी करने देते थे. लंबी-लंबी कविताएं. कार्बन काफी तैयार की जा सकती थी लेकिन इसके लिए पैसे की जरूरत होती है. लिहाजा पत्र-पत्रिकाओं को हस्तलिखित कविताएं भेजने के बाद शायद कोई दूसरा ड्राफ्ट नहीं रहता होगा. यह भी संभव है प्रकाशन के लिए स्वीकार न किए जाने की स्थिति में कविताएं लौटकर न आती हों. प्रकाशक ने वापस न भेजी हों. नागपुर में उनके एक मात्र उपन्यास का ड्राफ्ट, जैसा कि मैने सुना, खोने का संभवत: यह भी एक कारण रहा होगा.

बाबू साहेब की उर्दू शायरी में भी गहरी दिलचस्पी थी. उस दौर के प्रख्यात उर्दू शायरों की किताबें उनकी लायब्रेरी में थी, जिन्हें वे बार-बार पढ़ा करते थे. जिन पंक्तियों को मैने अक्सर उन्हें गुनगुनाते हुए सुना है वह है- ‘‘अभी तो मैं जवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं.’’ मुझे पता नहीं था कि वे किस शायर की लिखी कविता हैं पर मैं देखता था, उन्हें गुनगुनाते समय पिताजी बहुत प्रसन्न मुद्रा में रहते थे. चक्करदार सीढ़़ी वाले हालनुमा कमरे में चक्कर लगाते हुए वे इन पंक्तियों को बार-बार दोहराते थे. मैं समझता हूं संतोष और खुशी के जितने भी लम्हें उनकी जिंदगी में थे, कविताएं उन्हें ताकत देती थीं. उनकी उम्र कुछ भी नहीं थी, युवा थे, महज 40-42 के लेकिन ‘अभी तो मैं जवान हूं’ गुनगुना कर वे बढ़ती उम्र के अहसास को शायद कम करने की कोशिश करते थे. संभवत: आशंकाग्रस्त थे. फिर भी इन पंक्तियों को गाकर उनके चेहरे पर जो खुशी झलकती थी, वह उन्हें संतुष्टि देती थी, आशंकाओं से मुक्त करती थी. लेकिन हकीकतन ऐसा हुआ कहां? वे अपने जीवन के प्रति कितने आशंकाग्रस्त थे, इसकी झलक 5 फरवरी 1964 (मुक्तिबोध रचनावली खंड-6 – पृष्ठ 368) को श्री श्रीकांत वर्मा को लिखे गए पत्र से मिलती है. एक स्थान पर उन्होंने लिखा है- ‘जबलपुर से लौटने पर मैं बहुत बीमार पड़ गया. चलने में, सोने में, यहां तक कि लिखने में भी चक्कर आते रहते हैं, खूब चक्कर आते हैं. इस कारण छोटी-मोटी दुर्घटनाओं का भी शिकार होता रहा. अपने स्वास्थ्य के संबंध में भयानक और विकृत सपने आते रहते हैं. बहुत दुभार्ग्यपूर्ण अपने को महसूस करता हूं.’ दुर्भाग्य ने वाकई उनका पीछा नहीं छोड़ा. 47 की उम्र वे इस दुनिया से चले गए. 11 सितंबर 1964. आल इंडिया इंस्टीट्यूट आॅफ मेडिकल साइंसेस, नई दिल्ली. समय रात्रि लगभग 8 बजे.

कविता के उनके श्रोता कम नहीं थे. घर में किसी न किसी साहित्यिक का प्राय: रोज आना-जाना लगा ही रहता था. पर कभी-कभी ऐसा भी होता था जब वे बिना किसी की उपस्थिति के कविता का जोर-जोर से पाठ किया करते थे.

‘‘पता नहीं कब कौन कहां, किस ओर मिले,
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले,
यह राह जिंदगी की, जिससे जिस जगह मिले.’’

कविता की ये वे पंक्तियां हैं जिन्हें मैं बचपन में अक्सर सुना करता था. मैं उनका श्रोता उस दौर में बना जब मुझे अस्थमा हुआ. दमे के शिकार बेटे को गोद में लेकर हालांकि वह इतना बड़ा हो गया था कि गोद में नहीं समा सकता था, थपकियां देकर वे जो कविताएं सुनाया करते थे, उनमें ‘‘पता नहीं’’ शीर्षक की इस कविता की प्रारंभिक लाइनें मेरे जेहन में अभी भी कौधंती हैं. वह शायद इसलिए कि मैंने उसे उनके स्वर में बार-बार सुना है. जिस लयबद्ध तरीके से वे इसे सुनाया करते थे, कि मुझे थोड़ी ही देर में नींद आ जाती थी. अस्थमा एक ऐसा रोग है जो आदमी को चैन से सोने भी नहीं देता. धांैकनी की तरह बेचैनी होती सांसें ऊपर-नीचे होती रहती हैं जिसकी वजह से सीधा लेटा नहीं जा सकता. दो-तीन तकियों के सहारे आधा धड़ ऊपर रखकर-एक तरह से बैठे-बैठे राते काटनी पड़ती हैं. 10-11 साल की उम्र में मुझे दमे ने कब कब पकड़ा, याद नहीं, अलबत्ता पिताजी की बड़ी चिंता मुझे लेकर थी. इसलिए जब अधलेटे बेटे की हालत उनसे देखी नहीं जाती थी, तब वे उसे गोद में लेकर सस्वर कविताओं का पाठ करते थे, आगे पीछे अपने शरीर को झुलाते हुए ताकि मुझे नींद आ जाए और वह आ भी जाती थी. लेकिन मेरी बीमारी उनकी चिंता का सबसे बड़ा कारण थी.

चूंकि घर के आजू-बाजू तालाब था-रानी सागर और बूढ़ासागर. लिहाजा ठंड के दिनों में ठंडी हवाएं खूब चलती थी. वातावरण में हमेशा आर्द्रता रहती थी. यह समझा गया कि मेरे दमे की एक वजह हवा में पसरी हुई ठंडक हो सकती है. फलत: शहर से दूर जैन स्कूल में मेरे रहने का प्रबंध किया गया. गर्मी के दिन थे, स्कूल में छुट्टियां थी. मैं कुछ दिन मां के साथ वहीं रहा. बाद में लेबर कॉलोनी में मेरे लिए अलग से छोटा सा मकान किराये पर लिया गया जहां मैं और बड़े भैय्या रहने लगे. कॉलेज छूटने के बाद पिताजी रोज अपने किसी न किसी मित्र को लेकर मुझे देखने आते थे. धीरे-धीरे मेरी तबीयत ठीक होती गई और शायद जनवरी 1964 में मैं फिर से कॉलेज वाले घर में आ गया. लेकिन पिताजी बीमार पड़ गए. उन पर अकस्मात पैरालिसिस का अटैक हुआ. शायद कॉलेज से लौटते हुए वे गिर गए. उनका आधा शरीर निर्जीव हो गया, अलबत्ता चेहरा अछूता था. लेकिन शब्द टूटने लगे थे. बहुत धीमे बोल पाते थे.

वे बीमार पड़ गए. मैं ठीक होता गया. इतिहास का वह किस्सा मुझे याद आने लगा कि कैसे बादशाह बाबर ने अपने बीमार बेटे हुमायूं की जिंदगी बचाने के लिए प्रार्थनाएं की जो कबूल हुई. हुमायूं ठीक हो गए. बादशाह बीमार पड़ गए और अंतत: चल बसे.
क्या मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ होने वाला था? यह बात तर्क संगत भले न लगे पर मैं इतिहास के उस किस्से को अपने साथ जोड़ ही सकता हूं. दरअसल एक दिन मैं घर की बड़ी सी खिड़की पर बैठा हुआ था. घर की खिड़कियां कमरे के भीतर से इतनी चौड़ी रहती थी कि कोई भी उस पर आराम से बैठ सकता था. रात हो चली थी, पिताजी आए. वे अपने साथ पासपोर्ट साइज की जैकेट वाली तस्वीर लेकर आए थे. फोटो उन्होंने कब और किससे खिंचवायी थी मुझे याद नहीं. वह फोटो उन्होंने मुझे देखने के लिए दी. किन्तु उनका फोटो देखकर न जाने क्यों मेरा मन रुआंसा हो गया. क्या यह कोई संकेत था?

दूसरी घटना- भोपाल रेलवे स्टेशन की. हमीदिया अस्पताल में उनकी सेहत सुधरती न देखकर उन्हें नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती कराने की व्यवस्था की गई थी. हम रेलवे स्टेशन पर थे. एक कंपार्टमेंट में बर्थ पर पिताजी अर्द्धचेतनावस्था में लेटे हुए थे. आसपास के वातावरण से एकदम बेखबर. मां साथ में थी और पिताजी मित्रगण- परसाई जी, प्रमोद वर्मा जी और भी कई. पिताजी की ऐसी अवस्था देखकर मन फिर भीग गया. लगा जैसा कि यह उनका अंतिम दर्शन है. वाकई मेरे लिए वह अंतिम दर्शन ही था. उनसे मिलने हम दिल्ली जा नहीं पाए. पिताजी 11 सितंबर 1964 को विदा हो गए. हूमायूं का किस्सा मुझे लगता है, मेरे लिए हकीकत बन गया. मेरे लिए, मेरे जीवन का यह सबसे बड़ा सत्य है.

अपनी याद में पिताजी को बीमार पड़ते मैंने कभी नहीं देखा. बचपन की यादें यानी नागपुर में सन 1954 -55, राजनांदगांव में 1964, उनकी मृत्यु पर्यन्त तक. जनवरी 1964 में पक्षाघात के बाद वे कभी नहीं उठ पाए. ऊंचे-पूरे, अच्छी पर्सनालिटी के मालिक थे. उन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता था कि कोई बीमारी उन्हें तोड़ सकती है. लेकिन हाथ-पैर उनके दर्द देते थे. कॉलेज से लौटने के बाद या निरंतर लेखन से आई शारीरिक शिथिलता दूर करने के लिए वे हमें हाथ-पैर दबाने के लिए कहते थे. यह काम मालिश जैसा नहीं था यानी यहां हाथों की उंगलियों का कोई काम नहीं था. वे पेट के बल लेट जाते थे और हमें ऊपर से नीचे तक, पैरों से लेकर गर्दन तक पांव से दबाने कहते थे. हम दीवार के सहारे एक तरह से उनकी पीठ व कमर पर नाचते थे. यह हमारे लिए खेल था किन्तु उन्हें इससे आराम मिलता था. कभी-कभी वे पेट भी इसी तरह हमसे दबाया करते थे. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्हें कितनी तकलीफ थी पर न तो वे डॉक्टर के पास जाते थे और न दवाई लेते थे. इसलिए उनकी शारीरिक पीड़ाओं का हमें अहसास नहीं था. अलबत्ता कभी-कभी विषाद और चिंताएं उनकी बेचैनी भरी चहलकदमी से महसूस की जा सकती थी. स्वामी कृष्णानंद सोख्ता के रोड एक्सीडेंट में मारे जाने की खबर जब उन्हें मिली तो वे बेहद दु:खी हुए. इसी तरह भोपाल के हमीदिया अस्पताल में बिस्तर पर पड़े-पड़े जीवन के प्रति उनका निराशा को चेहरे पर देखा-पढ़ा जा सकता था. हालांकि इलाज के चलते उनकी तबीयत में कुछ सुधार हुआ था. सहारा लेकर वे कुछ कदम चलने-फिरने लगे थे लेकिन इलाज का प्रभाव सीमित ही रहा. मुझे लगता है दो बड़ी घटनाओं ने उन्हें तगड़ा मानसिक आघात दिया, जिसका असर उनकी सेहत पर पड़ा. पहली घटना जब तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार के पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकार की गई उनकी किताब भारत: इतिहास और संस्कृति पर प्रतिबंध लगा, संघ समर्थकों ने जगह-जगह किताब की होली जलाई और दूसरी घटना बीमारी के दौरान उनके लिए की गई आर्थिक सहायता की अपील. धर्मयुग में प्रभाकर माचवेजी का लेख और मदद की अपील ने उन्हें बहुत विचलित किया. स्वाभिमान पर ऐसी चोट उनके जैसा संवेदनशील कवि कैसे बर्दाश्त कर सकता था? उन्होंने इस अभियान को पसंद नहीं किया किन्तु उसे रोक नहीं पाए. शारीरिक अवस्था ऐसी नहीं थी कि प्रतिकार किया जाए. पर वे बहुत दुखी थे.

राजनांदगांव के दिग्विजय कॉलेज जो अब शासकीय है, में आप जाएं तो उसके सौंदर्य को देखकर आप अभिभूत हो जाएंगे. पिछले सिंह द्वार का हमारा वह मकान, दोनों तरफ बड़े तालाब, रानी सागर, बूढ़ासागर, पिताजी की मृत्यु के बाद उनकी कीर्ति का यशोगान करते हुए नजर आएंगे. इसमें संदेह नहीं कि राज्य सरकार ने उसके सौंदर्य को निखारा है, समूचे परिसर को स्मारक में तब्दील किया है, मूर्तियां स्थापित की हैं, परिसर को हरा-भरा कर दिया हैं, एक नया भवन भी बनाया है, इस सोच के साथ कि देश-प्रदेश के लेखक, विचारक इस भवन में सरकार के मेहमान बनकर रहेंगे और रचनात्मक कार्य करेंगे. सिंह द्वार के ऊपर मंजिल पर जहां हम रहते थे, पिताजी की स्मृतियों को संजोया गया है, उनकी लेखन सामग्री, उनकी कुछ किताबें, उनके कुछ वस्त्र, कुछ पांडुलिपियां प्रदर्शित की गई हैं. दीवारों पर दुर्लभ फोटोग्राफ थे जो उनकी जीवन यात्रा के कुछ पलों के साक्षी थे. किन्तु सीलन आने की वजह से वे निकाल दिए गए. स्मृतियों का यह झरोखा उस हाल तक सीमित हैं जहां वे चक्करदार सीढ़ियां हंै जो उनकी प्रख्यात कविता ‘अंधेरे में’ जीवन की रहस्यात्मकता की प्रतीक बनी है. बगल के दो अन्य कमरों में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी है और डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र. इसलिए हमारे उस मकान को राज्य सरकार द्वारा त्रिवेणी नाम दिया गया है. कभी खंडहर रहे इस भवन में जिसे कॉलेज के प्राचार्य स्व. किशोरीलाल शुक्ल के निर्देश पर रहने लायक बना दिया गया था, हम रहते थे. बख्शीजी या मिश्रजी नहीं. यह कोई कीर्ति की प्रतिस्पर्धा नहीं थी पर ज्यादा अच्छा होता यदि इस मकान एवं परिसर में सिर्फ पिताजी की स्मृतियों को संजोया जाता. यह अलग बात है कि हिन्दी साहित्य जगत में इस ‘त्रिवेणी’ को मुक्तिबोध स्मारक के रूप में ही जाना जाता है. बहरहाल राज्य सरकार ने एक दशक पूर्व परिसर की कायाकल्प करके साहित्य जगत में बड़ी वाहवाही लूट ली थी, बड़ी सराहना मिली थी, किन्तु उसके बाद उसने पलटकर नहीं देखा. साहित्य-सृजन के लिए बना भवन सृजनात्मकता की बाट जोह रहा है. अब तक उसे एक भी लेखक नहीं मिला जो उसकी उदासी दूर कर सके. सरकार ने अपने कारणों से जिसे राजनीतिक भी कह सकते हैं और सांस्कृतिक सोच का अभाव भी, इससे पल्ला झाड़ लिया है. राज्य की भाजपा सरकार के साथ ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं. वर्ष 2014 में राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव का आयोजन करके उसने देशव्यापी सराहना अर्जित की थी. फिर उसे इसकी दुबारा जरूरत नहीं पड़ी. राजनांदगांव में मुक्तिबोध स्मारक के साथ भी कुछ ऐसा ही है.

यकीनन राजनांदगांव उनकी सृजनात्मकता का स्वर्णिम काल था. जीवन में कुछ निश्चिंतता थी, कुछ सुख थे पर दुर्भाग्य से वे यह समय अत्यल्प रहा. लेकिन मात्र 6-7 साल की अवधि में उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेखन यही हुआ. वे छत्तीसगढ़ के प्रति कितने कृतज्ञ थे, इसका प्रमाण श्री श्रीकांत वर्मा को लिखे गए उनके पत्र से मिलता है- 14 नवंबर 1963 के पत्र में उन्होंने लिखा है-‘‘उस छत्तीसगढ़ का मैं ऋणी हूं जिसने मुझे और मेरे बाल बच्चों को शांतिपूर्वक जीने का क्षेत्र दिया. उस छत्तीसगढ़ में जहां मुझे मेरे प्यारे छोटे-छोटे लोग मिले, जिन्होंने मुझे बाहों में समेट लिया और बड़े भी मिले, जिन्होंने मुझे सम्मान और सत्कार प्रदान करके, संकटों से बचाया.’’

पिताजी को गुजरे 57 वर्ष हो गए. आधी शताब्दी बीत गई. हम, उम्र दराज हो गए, एक को छोड़ तीनों भाई 60 के पार. इस बीच मां नहीं रही, विवाहिता बहन नहीं रही, भाभी नहीं. कितना कुछ बदल गया लेकिन नहीं बदला तो घर का वातावरण. वह अभी भी वैसा ही है जैसा हमारे नागपुर में नयी शुक्रवारी, गणेश पेठ, राजनांदगांव में बसंतपुर व दिग्विजय कॉलेज परिसर वाले मकान में था. पिताजी की सशरीर मौजूदगी वहां थी और अब रायपुर में हमारे घर में उनकी अदृश्य उपस्थिति, हमारी आत्मा में उपस्थिति मौजूद हैं. इसलिए हमेशा यह महसूस होता हैं, वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे.

 

(यह लेख 19 सितंबर 2016 को लिखा गया था. आंशिक संसोधन के साथ इसे छत्तीसगढ़ गाथा के पाठकों के लिए प्रकाशित किया जा रहा है)
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