पीयूष कुमार/
बात लगभग 132 साल पुरानी है. छत्तीसगढ़ के रायपुर वनमंडल अंतर्गत एक अंग्रेज वन अधिकारी की पोस्टिंग पिथौरा में हुई. उन्होंने कुम्हारीमुड़ा गांव के एक निवासी मनीराम गोंड को बीटगार्ड की नौकरी पर रखा. मनीराम खाना बनाने में भी कुशल थे. उनके हाथों से बने भोजन का स्वाद अंग्रेजी अधिकारी की जुबान पर चढ़ गया. कुछ महीनों बाद वे अंग्रेज अधिकारी इंग्लैंड गए तो मनीराम को भी अपने साथ ले गए. वहां मनीराम को साहब की नर्सरी में सागौन जिसे प्लस ट्री भी कहा जाता है, उसके पौधों के बीज उगाने और पौधा बनाने की ‘रुट शूट विधि’ सीखने का अवसर मिला. कुछ महीनों बाद वे वापस भारत लौट आए. दो साल बाद उस अंग्रेज वन अधिकारी का ट्रांसफर हो गया, लेकिन उनके जाने के बाद मनिराम ने जो किया वह इतिहास है.
1891 का साल था जब गिधपुरी जंगल जो आज देवपुर फारेस्ट रेंज (बलौदाबाजार वनमंडल) में आता है और बार नवापारा वन्यजीव अभ्यारण्य से लगा हुआ है, वहां साल के वनों का एक बड़ा हिस्सा कटाई के कारण उजाड़ पड़ा था. मनीराम ने अपनी पत्नी के साथ वहां पौधे लगाने का निश्चय किया, ताकि वह खाली जगह हरी-भरी हो जाये. बताया जाता है कि संयोगवश बर्मा से लौटे एक व्यापारी से उनकी मुलाकात हुई. उसने मनीराम को सागौन के पौधे रोपने का सुझाव दिया और सागौन के बीज भी उपलब्ध करवाए. बीज मिलने पर मनीराम ने पहले सागौन के बीजों को नन्हें पौधों में बदला और फिर इंग्लैंड में सीखे हुए ‘रुट शूट’ पौधारोपण विधि का उपयोग कर 23 एकड़ क्षेत्र में सागौन के पौधे लगा डाले! इस समय जब पौधारोपण की कोई स्पष्ट नीति नहीं बनी थी, तब मनीराम ने 1891 में यहां पर उच्च तकनीक ‘रुट शूट प्लांट पद्धति’ से सागौन लगा दिए थे. कहा जाता है कि यह सागौन प्लांटेशन भारत ही नहीं बल्कि एशिया का पहला सागौन प्लांटेशन था.
पर नियति को कुछ और मंजूर था. इस वनपुत्र की यह हरित कथा एक दारुण दु:ख में बदल गयी. बाद में आये अंग्रेज अफसर ने गिधपुरी जंगल में इस सागौन पौधारोपण को लेकर विभागीय अनुमति के दस्तावेज खोजे तो ऐसा कोई कागज नहीं मिला. जबकि मनीराम ने यह पौधारोपण भावनावश किया था. विभाग ने इस काम को गैरकानूनी माना और मनीराम को बर्खास्त कर दिया!
मनीराम पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा और वे इससे आहत होकर पागलों की तरह भटकने लगे और बाद में उनकी मौत भी हो गई! स्थानीय ग्रामीण दैवीय विश्वासों के अनुसार मरने के बाद उनकी आत्मा जंगल और गांव में भटकती रही थी. इसके निवारण के लिए बैगाओं ने उनकी आत्मा को मनीराम प्लांटेशन के एक बरगद के वृक्ष में पत्थर बनाकर स्थापित कर दिया और विभिन्न त्योहारों में उनकी पूजा होने लगी. आज भी उस स्थान पर मनीराम की पूजा होती है.
मनीराम के इस योगदान को प्रशासन ने संज्ञान में लिया और 1996-97 में तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने मनीराम के पोते प्रेमसिंह को को 10 एकड़ जमीन और 50 हजार रुपये देने की घोषणा की की. इसी तरह जून 2018 में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा पौधारोपण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले को ‘मनीराम गोंड स्मृति हरियर मितान’ नाम से राज्यस्तरीय सम्मान की स्थापना की. आज मनीराम के वंशजों को उस जमीन पर मालिकाना हक मिला है कि नहीं, यह पता नहीं है. क्योंकि खबरों के अनुसार 2017 तक मनीराम के पोते प्रेमसिंग की मृत्यु हो चुकी है, उनकी पत्नी हीराबाई को शासन द्वारा प्रदत्त जमीन नहीं मिली थी.
समय अपनी चाल से चलता रहा और बाद में वन विभाग ने उनके प्रति कृतज्ञता दिखाते हुए इस प्लांटेशन का नामकरण मनीराम जी पर किया. आज 23 एकड़ क्षेत्र में सिर्फ एक एकड़ जगह पर ही मनीराम के लगाए सागौन बहुत कम संख्या में बचे हुए हैं. इन दुर्लभ और पुराने पेड़ों की मोटाई पौने तीन मीटर तक है और ये अपने वजन को और कितने दिन सम्भाल सकेंगे या कब तक सुरक्षित रहेंगे, यह कहा नहीं जा सकता. जैसा कि बाकी पेड़ समय की मार से खत्म हो गए, ये पेड़ ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाएंगे, ऐसी आशंका है. इस प्लांटेशन को लेकर आज भी लोगों को अधिक जानकारी नहीं है. इन बचे हुए पेड़ों को संरक्षित करने के उपायों के साथ इस प्लांटेशन स्थल को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करना और इस प्लांटेशन के पर्यावरणीय और ऐतिहासिक महत्व को सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में स्थान देना होगा.
रुट शूट के भारत मे प्रणेता मनीराम आज नहीं हैं. पर पूरे देश में उनकी सागौन रोपणी पद्धति का ही अनुसरण किया जाता है. जितने सागौन पेड़ भारत मे हैं, वे उसी रुट शूट पद्धति से रोपे हुए हैं जिनकी शुरूआत मनीराम ने की थी. इस पूरे मामले में एक लोकव्यवहार भी निकलकर आता है कि जिस मनीराम की कद्र तत्कालीन वन विभाग न कर सका, उसे गांव वालों ने वनदेवता बना दिया! यह घटना लोक में किंवदंतियों की स्थापना प्रक्रिया पर प्रकाश डालती है. आज 5 जून को पर्यावरण दिवस पर ‘वनदेवता’ मनीराम को नमन.
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