भारतीय परंपरा की महान प्रेमकथाएं

राहुल कुमार सिंह/

आमंत्रण है, बसंत ने दस्तक दे दी. सचेत होते वेलेन्टाइन आ जाएगा. इस बीच बहुतेरे मन कोयल की कूक के साथ दिल में उठती हूक का तुक बिठाने में तो कुछ कोयली कूक काम-कथा के अनुप्रास अलंकरण आलेख आमंत्रण में ही डूबे-उतराए जा रहे हैं. कहा गया है- ‘कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नहीं मन चाहिए’, लेकिन ऐसा भी होता है कि ‘लगे फूंकने आम के बौर गुलाबी शंख, कैसे रहें किताब में हम मयूर के पंख.’

यों जीवन में धर्म-अर्थ के अलावा जो भी है, काम है. और काम कथाएं वैदिक-पौराणिक और महाकाव्यीय साहित्य को जीवंत बनाए रखती हैं. इनका आधार ले कर संस्कृत व अन्य भाषा साहित्य में प्रेमकथाएं रची गई हैं. इनमें पुरुरवा-उर्वशी (विक्रमोर्वशीय), दुष्यंत-शकुंतला, नल-दमयंती, वासवदत्ता-उदयन-पद्मावती, उषा-अनिरुद्ध, अर्जुन-सुभद्रा, कृष्ण-राधा-रुक्मिणी. वृहत्कथा, कथासरित्सागर, पंचतंत्र, वेताल पचीसी जहां से लोकप्रिय साहित्य में भी काम-कथाओं का बोलबाला है. पाठकों की कामना-पूर्ति की स्वस्ति …

पत्थर पर खुदी दो प्रेम-इबारतें, जिनमें पहली छत्तीसगढ़ के सरगुजा, रामगढ़ का लगभग 2200 साल पुराना अभिलेख है. यह अपने किस्म की प्राचीनतम प्रेम-अभिव्यक्ति मानी जाती है. इसमें सुतनुका देवदासी और देवदीन रूपदक्ष (मूर्तिकार देवदत्त) का उल्लेख है. दूसरा- धार, मध्यप्रदेश के कमालमौला मस्जिद यानि सरस्वती मंदिर या भोज का मदरसा कहे जाने वाले स्मारक से प्राप्त 82 पंक्तियों वाला 13वीं सदी ईस्वी में अभिलिखित प्रेम-नाटिका ‘पारिजात मंजरी या विजयश्री’ का आधा भाग है. संभवत: प्राचीन प्रेमकथा वाले नाटक का अपने किस्म का अकेला प्रमाण जो पुस्तक या वाचिक परंपरा के बजाय पत्थर पर अभिलिखित प्राप्त हुआ. नाटक, राजा अर्जुनवर्मन की प्रशस्ति है और साथ ही नायिका पारिजात मंजरी या विजयश्री के साथ उसकी प्रेम कहानी.

नल-दमयंती- पेंटिंग- राजा रवि वर्मा

परंपरा में लैला-मजनूं, हीर-रांझा, शीरी-फरहाद, सोहनी-महिवाल, ससी-पुन्नू प्रसिद्ध हैं तो देश के अन्य हिस्सों की तरह लोरिक-चंदा, ढोला-मारू, जसमा-दसमत छत्तीसगढ़ में भी लोकप्रिय हैं. ओड़ार बांध गांव में दसमत का मंदिर है, वहीं डोंगरगढ़ के साथ माधव-कामकंदला की कहानी जोड़ी जाती है. प्राचीन छत्तीसगढ़ के प्रतापी शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन की राजधानी वर्तमान सिरपुर के साथ, लोक-मन में बाणासुर की राजधानी, प्राचीन मणिपुर होने और चित्रांगदा-अर्जुन प्रेमकथा का स्पंदन है. बुद्धि सुझाती है कि बाणासुर, बालार्जुन है और प्रेमकथा भी बालार्जुन से अर्जुन होते हुए चित्रांगदा से जुड़ गई है, लेकिन दिल है कि मानता नहीं. रसिक मन को रास आती है यही ‘चित्रांगदार्जुन’ कथा.

दंतेवाड़ा जिले में छिंदनार ग्राम के पास मुकड़ी मावली देवी का मंदिर है, जहां युवा अपनी प्रेमिका को पाने के लिए पूजा करते हैं. बच्चे और बूढ़ों को इस मंदिर में जाने की मनाही है. बस्तरिया झिटकू-मिटकी जैसी कई स्थानीय अमर प्रेम कथाएं, अब भी सुनी-सुनाई जाती हैं. मगर कुछ ऐसी भी प्रेम कहानियां हैं, जिनके पात्र शायद ही याद किए जाते हैं. कथाएं भी भूली हुई सी हैं, लेकिन हैं. आइए, ऐसी ही कुछ प्रेम कथाओं को याद करते चलें जो अनूठी और लाजवाब तो हैं, लेकिन उनकी चर्चा कम ही होती है.

झिटकू-मिटकी

छोटी सी भूमिका प्रेम कथाओं के लिए हिन्दी साहित्यिक उपन्यासों में पढ़ने की शुरुआत अक्सर ‘गुनाहों के देवता’ से होती है. फिर ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ पढ़ लेनी चाहिए. बीच में ‘कोहबर की शर्त’ भी देख लेना ठीक है. इस पर ‘नदिया के पार’, ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी फिल्में आधारित हैं. इसके लिए कैलाश गौतम ने भाभी की चिट्ठी के रूप में एक दोहा रचा था- ‘अव्वल नंबर पास हुए तो शर्त रही ये कोहबर की, गुड़िया जैसी बहन ब्याह दूं संग तुम्हारे देवर जी.’ फिर ‘शेखर: एक जीवनी’ और ‘वे दिन’ होते हुए अफसाना अंजाम तक लाना मुमकिन न हो तो उसे ‘कसप’ का खूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ सकते हैं. मनोहर श्याम जोशी ‘कसप’ में बताते हैं कि ‘‘प्रेम-कहानियों की घनघोर पाठिका ‘अपनी पत्नी भगवती के लिए’ जिसकी इच्छा पर मैं एक अन्य उपन्यास अधूरा छोड़कर यह प्रेम-कहानी लिखने बैठ गया.’’

कैसी है यह प्रेम कथा, जिसमें लेखक कहता है- ‘चौंका होना प्रेम की लाक्षणिक स्थिति जो है. जिन्दगी की घास खोदने में जुटे हुए हम जब कभी चौंककर घास, घाम और खुरपा तीनों भुला देते हैं, तभी प्यार का जन्म होता हैं.’ आगे एक सूक्तिनुमा पद आता है- ‘काम रूप बिन प्रेम न होई, काम रूप जहां प्रेम न सोई.’ और निष्कर्षनुमा ‘प्रेम को वही जानता है जो समझ गया है कि प्रेम को समझा ही नहीं जा सकता.’

इस कथा का नायक है डीडी या डीडीटी उर्फ देवीदत्त तिवारी और नायिका बेबी उर्फ मैत्रेयी शास्त्री. इनके प्रेम कहानी के आरंभ की संभावना बनती है कि एक उम्र होती है प्रेम में आहत होने की और वे उस उम्र में पहुंच चुके हैं. ‘उस उम्र के बाद और उस चोट के बावजूद तमाम और जिन्दगी होती है, इसीलिए लेखक होते हैं, कहानियां होती हैं.’ इसमें एक (प्रेम?) प्रसंग नायिका के पिता युवा शास्त्री जी और ‘ब्राह्मणकुलकमलिनी’ वरार्थिनी कन्या से होते-होते रह गए विवाह का भी है, पढ़ें तो हूक-सी! ऐसा कमाल जोशी जी ही रच सकते थे. तो ऐसी है यह प्रेम कहानी अनूठी ‘कसप’. दुखांत या सुखांत पाठक अपनी पसंद से तय करें. शाश्वत किस्म के सवाल वाला यह सूत्र अवश्य ध्यान में ला सकते हैं कि क्या सफल प्रेम का पैमाना ‘विवाह’ है? पर विवाह तो सामाजिक-धार्मिक रस्म है और प्रेम को कब इसकी परवाह हुई है. वैसे भी वैवाहिक रिश्ते मेल के होते हैं, जोड़ियां ऊपर से ही बन कर आती हैं. मगर प्रेम अक्सर जात-पांत, ऊंच-नीच, छोटे-बड़े से बेपरवाह, बेमेल.

एक फैंटेसी प्रेम कथा है गिरीश कारनाड का नाटक ‘नागमंडल’. किसी पौराणिक प्रसंग की तरह कहानी शुरू होती है. कहानी में कहानी और नाटक में नाटक गुत्थम-गुत्था. महीने की आखिरी रात, किसी संन्यासी के कहे, ‘मनुष्य’ को जिन्दा रहने के लिए रात जाग कर बितानी है. आधी रात, उजाड़ मंदिर में चार-पांच दीये की ज्योतियां हवा में तैरती मंदिर में प्रवेश करती हैं. केवल दीये की ज्योतियां, बत्ती नहीं, दीये नहीं, दीया पकड़ने वाला नहीं. ज्योतियां हवा में तैरती बातें करती चली आ रही हैं. नाटक की यह कहानी, कहानी न सुनाने वाली बुढ़िया के साथ आगे बढ़ती है. संवाद है- ‘एक कहानी छिपा लो तो दूसरी बन जाती है’. रोचक कि इसमें एक पात्र ‘कहानी’ भी है. नाटकीय घटनाक्रम में नायिका मोहनी जड़ी के टुकड़ा डालकर पकाई दाल घबराकर सांप की बांबी में फेंक देती है और एक रात आसक्त नाग गुसलखाने की मोरी से घर में घुसकर मनुष्य का रूप धारण कर लेता है. नायिका रानी नाग-मनुष्य रोमांटिक ‘नागप्पा’ को बेरुख पति-मनुष्य ‘अप्पण्णा’ मान कर, उसके बदले हुए व्यवहार से चकित है. रानी गर्भवती हो जाती है, अप्पण्णा का क्रोध, बुजुर्गों द्वारा रानी का चरित्र परीक्षण और सतीत्व तय कर दिया जाना. नाटक के अंत में जहां से नाटक आरंभ होता है, उस ‘मनुष्य’ की रात जागते बीत जाती है. सबेरा हो जाता है और वह जिन्दा रह जाता है.

गिरीश कारनाड को ऐसे नाटक रचने में आनंद आता है. महारत भी है. उनका दूसरा नाटक ‘हयवदन’ की प्रेम कहानी भी कम अनूठी नहीं. यहां भी कथा में लिपटी कथा है. कर्नाटक की राजकुमारी के स्वयंबर में सफेद घोड़े पर सवार, सौराष्ट्र का राजकुमार आता है. उसे देखते ही राजकुमारी अचेत हो जाती है और होश में आने पर कहती है- मैं तो उस सफेद घोड़े से ही ब्याह करूंगी… आगे कवि हृदय देवदत्त, मल्ल कपिल और रूपसी पद्मिनी के स्त्री-मन की सुलझी-उलझी, सिर-धड़ की अदला-बदली, कोमल-हृदय के साथ अश्व-चुस्त बलिष्ठ काया की कामना.

विजयदान देथा की प्रसिद्ध कहानी ‘दुविधा’ है. इस पर फिल्में भी बनी हैं. कहानी में धनी सेठ के बेटे की लौटती बरात विश्राम के लिए रुकी और दुल्हन पर एक भूत की नजर पड़ गई. रूप-यौवन पर मोहित हुए ‘भूत की योनि सार्थक’ भूत मूर्च्छित भी हो जाता है. दुल्हन ताजे दमकते सुर्ख ढालू खाना चाहती है. दूल्हा का प्रस्ताव छुहारे का है. घर वापस लौटते ही दूल्हे को इसी ‘शुभ मुहूर्त’ में व्यापार खातिर पांच बरस के लिए दिसावर जाना जरूरी होता है. उधर व्यापारी-पुत्र दूल्हा दिसावर के लिए रवाना, इधर भूत उसका रूप धरकर सेठ के सामने हाजिर, सेठ नाराज. रोजाना पांच मोहरों की बात पर मान-मनौवल. सब के सब राजी-खुशी. भूत और नव-ब्याहता की प्रीत. देखते ही देखते तीन बरस गुजर गए. बहू के आशा ठहरी, गर्भ रहने की खुशखबरी. किसी तरह दिसावर गए लड़के को खबर मिली. वापस लौटा तो असमंजस. इधर दाइयों ने खबर दी कि बहू को लड़की हुई है. दो पिता-पति की बात बिगड़ती गई और फैसले के लिए राजा तक जाने की नौबत आ गई. मगर रास्ते में गड़रिया मिला और उसने फैसला कर दिया. इस कहानी में भी नागमंडल की तरह बहू के लोक-लाज की रक्षा हो जाती है.

अब दो पुरानी कहानियां…पहली पंचतंत्र की ‘मिथ्या विष्णुकौलिककथा’, जिसमें रथकार-बढ़ई का अभिन्न मित्र कौलिक-जुलाहा, राजकन्या को देखकर काम बाणों से आहत, अचेत हो जाता है. रथकार, अपने मित्र कौलिक की व्यथा-निदान के लिए कहता है कि औषध, धन, मंत्र-तंत्र और बुद्धिमानों की तीक्ष्ण बुद्धि से कोई भी कार्य असाध्य नहीं. रथकार ने कौलिक और राजकुमारी के मिलन की व्यवस्था बनाई. चाबी और पेंच से उड़ने वाला गरुड़ और चतुभुर्जी विष्णु-रूप, वरुण की मजबूत लकड़ी से बना दिए. कौलिक विष्णु रूप धर कर राजकुमारी से गांधर्व विवाह को कहता है. पहले महारानी का क्रुद्ध होना फिर राजा सहित मान लेना कि कन्या का विवाह भगवान श्रीनारायण के साथ गांधर्व विधि से हो गया है. इस राज्य पर संकट आया, कोई उपाय नहीं रहा. उधर भगवान श्रीविष्णु स्वयं यह तमाशा देखते चिंतित हो कर गरुड़ से कहते हैं कि विष्णुरूप धारी गरुड़ारूढ़ कौलिक के मारे जाने पर सभी कहेंगे कि बहुत से क्षत्रिय वीर योद्धाओं ने मिलकर विष्णु और गरूड़ को मार गिराया. हमारी और तुम्हारी दोनों की पूजा बंद हो जाएगी यह सोचते-कहते भगवान स्वयं शत्रुओं का नाश कर देते हैं. मगर कहानी में अंतत: मिथ्या कौलिक का भेद खुल जाता है. वह सारी बातें सच-सच बता देता है और राजा मंत्रियों की अनुमति से अपनी कन्या का विवाह धूमघाम से उस कौलिक से करा देता है. ‘जैसे उसके दिन फिरे. अंत भला तो सब भला.’

‘टीन एज’ की दहलीज पर पहुंची मासूम और अबोध कन्या के लिए लोक में शालीन-सार्थक शब्द है ‘सज्ञान’ यानि अब वह सामाजिक स्तर पर, दुनियादारी को और कायिक स्तर पर सृष्टि के सबसे नाजुक और गूढ़ जैविक रहस्य-मातृत्व को जानने-बूझने लगेगी. उसके प्रति सांसारिक-पारिवारिक व्यवहार में आया परिवर्तन, उसमें कामना को सहलाते हुए सक्रिय करने लगता है. गिरीश कारनाड, विजयदान देथा और पंचतंत्र की इन कहानियों की तरह काम-राग सुख से वंचित नारियों के देव-दिव्य संसर्ग कथाओं का भरपूर संदर्भ भंडार है. शास्त्रीय, पौराणिक और प्राचीन साहित्य में भी, जिनमें लोक-लाज, शील और मर्यादा की रक्षा होते भी दिखाया गया है.

बिल्हण की ‘चौर पंचाशिका’. हजार साल पुराने कश्मीर में बिल्हण से मिलते-जुलते नाम वाले साहित्यकार जल्हण और शिल्हण हुए. सबसे अधिक नाम है कल्हण का, जिनकी ‘राजतरंगिणी’, इतिहास की पहली पुस्तक मानी जाती है. वैसे बिल्हण के कुछ उदार पक्षधर उनके विक्रमांकदेवचरित महाकाव्य को भी आरंभिक इतिहास ग्रंथ मानते हैं. बिल्हण की एक रचना का नाम कर्णसुंदरी नाटिका मिलता है. लेकिन यहां ‘चौर पंचाशिका’ खंडकाव्य, जो ‘चौरसुरतपंचाशिका’ या ‘बिल्हणकाव्य’ नाम से भी जाना जाता है.

जानकारी मिलती है कि भारतचन्द्र राय ने ‘चौर पंचाशिका’ को कविता में प्रस्तुत किया था, जिसके आधार पर यतीन्द्र मोहन ठाकुर ने बंगभाषा में ‘विद्यासुन्दर’ नाटक बनाया था. इस नाटक का अनुवाद भारतेन्दु ने किया तथा इसकी भूमिका में बताया है कि नाटक का कवि सुन्दर ही ‘चौरपंचाशिका’ का कवि है. कोई इसे वररुचि की बनाई मानते हैं. जो कुछ हो विद्यावती (इस नाटक की नायिका) की आख्यायिका का मूल सूत्र वही ‘चौरपंचाशिका’ है. वाचिक परंपरा के इस काव्य का दक्षिण भारतीय, उत्तर-मध्य भारतीय और कश्मीरी पाठ अलग-अलग है. उल्लेखनीय है कि इस काव्य की लोकप्रियता विदेशों में भी रही है. बल्कि इसका पहला अनुवाद ही फ्रांसीसी में हुआ. इसके बाद जर्मन के अलावा इसके कई अनुवाद अंगरेजी, बंगला, मराठी जैसी भाषाओं में हुए. साथ ही विभिन्न साहित्यिक रचनाओं में इसके पदों का इस्तेमाल होता रहा. लेकिन यहीं हम हिंदी वालों के लिए विचारणीय है कि संभवत: इसका ठीक हिंदी अनुवाद अब तक नहीं हुआ है और हुआ तो साहित्यिकों के बीच भी खोज-खबर नहीं.

इस शास्त्रीय विमर्श से निकल कर कथा की ओर ध्यान दें. कहा जाता है कि पचास पदों वाली इस पंचाशिका की रचना तब हुई जब कवि चौर को सजा हुई. किसी राजकुमारी की शिक्षा के लिए नियुक्त गुरु-कवि का शिष्या से प्रेम हो गया. राजा को पता चलने पर कवि को फांसी का आदेश हुआ. कवि ने इस दौरान राजकुमारी से अपने उत्कट प्रेम को याद करते हुए पचास पद लिखे और इसे राजा को सुनाया. कई रूपों में उपलब्ध इसके एक पाठ में कवि पचास सीढ़ियां उतरते हुए एक-एक कर पचास पद पढ़ता है. इसका क्या हश्र हुआ, यह कश्मीरी पाठ में छोड़ दिया गया है. किंतु दक्षिण भारतीय पाठ सुखांत है. जिसमें काव्य से प्रभावित राजा ने न सिर्फ सजा माफ कर दी, बल्कि राजकुमारी का ब्याह कवि से कर दिया. ये तो हुआ इस काव्य की कथा, देखें कि ऐसा क्या है इस कविता में. सभी पद ‘अद्यापि-आज भी’ से आरंभ करते कवि उन प्रेमसिक्त भावों को याद करते अभिव्यक्त करता है. उदाहरण के लिए दो पदों का आशय इस तरह है…

आज भी मेरे मन में वह बात घूम रही है. रात का समय था. राजुकमारी मुझसे रूठी हुई थी और मुझे छींक आ गयी. तब उसने क्रोध त्याग कर ‘जीव’ (जियो) मंगल वचन कहा और मुझसे सीधे बिना कुछ कहे स्वर्णाभूषण संवारने लग गई. इस पद के एक अन्य अनुवाद में क्रोध के कारण ‘जीव’ उच्चारण न किया जाना भी मिलता है. (छींक आने पर ‘जीते रहो’, सतन जिओ-शतायु हो, जैसी मंगल कामना का प्रचलन तब से अब तक है) इसी तरह एक अन्य पद है- आज भी महसूसता हूं कि अकेले में दर्पण देखती हुई, जिसमें पीछे खड़े होने पर मेरा प्रतिबिम्ब पड़ रहा था, वह किस तरह कांपती हुई, शर्माई हुई, विलास-युक्त थी.

इस तरह प्रेम कहानियों का कहना-सुनना मनोहर श्याम जोशी के ‘कसप’ से- ‘एक लड़के और एक लड़की के प्रेम की पहले लिखी जा चुकी कहानी अपने ढंग से फिर लिख देने के लिए, वैसे ही जैसे मैंने यहां इस बंगले में अकेले बैठे-बैठे लिख दी है. जब तक हम एक-दूसरे के मुह से यह कहानी सुनने को और ‘ऐसा जो थोड़ी’ कहकर फिर अपने ढंग से सुनाने को तैयार हैं, तब तक प्रेम के भविष्य के बारे में कुछ आशावान रहा जा सकेगा.

मेरी वासंती कामना- कुछ लिखते हुए मन में कभी न पाठक आते, न संपादक. कुछ युवा शालीन किंतु मेरे लिखे के प्रबल आलोचक जरूर ध्यान में रहते हैं और कई बुजुर्ग. जिनसे शाबासी पाने को मन लालायित रहे. मगर अब ऐसे गुरुजन इक्का-दुक्का ही रह गए …

(लेखक वरिष्ठ पुराविद् व इतिहास अध्येता है. लेख उनके प्रसिद्ध ब्लॉग अकलतरा ब्लॉग स्पॉट डॉट कॉम से साभार)
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