43 एकड़ बंजर जमीन पर शास्त्रीय संगीत सुनकर बड़े हुए आम के पेड़, स्वाद ऐसा कि हर साल 20 लाख का मुनाफा

प्रफुल्ल ठाकुर/

शास्त्रीय संगीत में जो रस है, उसका पान तो आप सभी ने किया होगा, लेकिन बांसुरी की मधुर तान, तबले-मृदंग की थाप और सात सुरों के आरोह-अवरोह में बड़े हुए और पके आमों का रसपान करने का ख्याल कैसा रहेगा… इतना पढ़कर यदि मुंह में आम की मिठास घुल गई और ऐसा रस पान करने के लिए मन में सितार झंकृत हो गए तो आपको बिलासपुर का रुख करना होगा. पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी और शास्त्रीय संगीत सुनकर बड़े हुए आम के पेड़ बिलासपुर से करीब 24 किलोमीटर पर स्थित मोहनभाठा में बजरंग केडिया के बगीचे में मिलते हैं. यहां के आम कितने प्रसिद्ध हैं, यह जानना है तो आपको बता दें कि किशोरी अमोनकर, पं. भीमसेन जोशी, पं. जसराज, शिवकुमार शर्मा व पं. हरिप्रसाद चौरसिया तक यहां आ चुके हैं.

पेड़ों से केवल आक्सीजन नहीं मिलता, पेड़ अगर फलदार हैं तो उससे मुनाफा भी कमाया जा सकता है. यह कर दिखाया है बिलासपुर निवासी 82 वर्षीय बजरंग केडिया ने. जिन्होंने पर्यावरण और आमदनी दोनों को ध्यान में रखकर आज से 20 साल पहले अपनी 43 एकड़ बंजर जमीन पर आम के पौधे रोपे. आज वही पौधे बड़े होकर उन्हें हर साल 20 लाख रुपए तक का मुनाफा दे रहे हैं.

श्री केडिया उन दिनों बिलासपुर के एक प्रतिष्ठित अखबार में काम कर रहे थे. खबरों के सिलसिले में उन्हें अक्सर कृषि वैज्ञानिकों के पास जाना पड़ता था. ऐसे ही एक दिन वे प्रख्यात कृषि विज्ञानी डॉ. रामलाल कश्यप के साथ बैठे थे. श्री कश्यप ने उन्हें बताया कि बिलासपुर की आबोहवा आम की फसल के लिए बहुत अनुकूल है. उन्होंने ही इस बात का पता सबसे पहले लगाया था. उन्होंने श्री केडिया को आम की फसल लगाने की लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया.

श्री केडिया बिलासपुर के संपन्न परिवार के हैं. श्री कश्यप के प्रोत्साहित करने पर उन्होंने बिलासपुर शहर से 24 किलोमीटर दूर मोहन भाठा (कोटा) के पास भरारी गांव में अपनी 43 एकड़ बंजर जमीन को हरा-भरा करने का निर्णय लिया. श्री कश्यप के मार्गदर्शन में उस जमीन पर चुन-चुन कर दशहरी, लंगड़ा, हाफुज (अलफांसो), आम्रपाली जैसी आम की प्रजातियों के पौधे लगाए.

बगीचा तैयार करने श्री केडिया ने दिन-रात एक कर दिया. धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाने लगी और बगीचा तैयार होता गया. बगीचे में कुल 3000 पेड़ लगाए गए हैं, जिनमें से 1400 पेड़ विभिन्न प्रजातियों के आमों के हैं. इसके अलावा चीकू, मुनगा, अमरूद जैसे फलदार पेड़ भी लगाए गए हैं. स्थानीय लोग बगीचे को ‘जड़िया बगीचा’ के नाम से जानते हैं, जो श्री केडिया की माता के नाम पर है. बगीचे की देख-रेख और कामकाज में करीब दो दर्जन लोगों को रोजगार मिला हुआ है. श्री केडिया से प्रेरित होकर क्षेत्र में अब कई लोग आम के बगीचे तैयार कर रहे हैं. उनके आम बगीचे की प्रसिद्धि प्रदेशभर में फैली हुई है.

बच्चों की तरह करते हैं देखभाल

श्री केडिया आम के पेड़ों की देखभाल अपने बच्चों की तरह करते हैं. उनके शागिर्द ठाकुर बच्चन सिंह उनके साथ शुरुआती दिनों से जुड़े हुए हैं. पंचराम और मंगल भी बगीचे की देखरेख में दिन-रात लगे रहते हैं. खाद के खर्च को कम करने के लिए शुरुआत में 9 विशालकाय टंकियों में दस हजार आस्ट्रेलियन केचुए पाले गए जो अब करोड़ों की संख्या में हो गए हैं. इन टंकियों में केचुओं के आहार के लिए हर माह 6 ट्रेक्टर गोबर, बाग का कचरा और सूखी पत्तियों को डाला जाता है. केचुओं द्वारा उत्सर्जित मल का उपयोग उर्वरक के रूप में किया जाता है जिससे रासायनिक खाद में होने वाला व्यय कम होता है.

सिंचाई के लिए ‘ड्रिप इरीगेशन सिस्टम’

पौधों की सिंचाई के लिए ‘ड्रिप इरीगेशन सिस्टम’ लगाया गया ताकि आसानी से जरूरी मात्रा में पौधों को पानी पहुंचाया जा सके. आंधी-तूफान की तेज गति को रोकने के लिए बाग की सीमा में चारों ओर नीलगिरी और बांस के पौधे लगाए गए हैं. यदि वायु गति 70 किलोमीटर प्रति घंटा हो तो ये पेड़ उसकी गति को 35-40 किलोमीटर प्रति घंटा तक कर देते हैं. इससे आंधी-तूफान से फलों को होने वाला नुकसान कम हो जाता है. बगीचे के जलस्तर को बनाए रखने के लिए पौन एकड़ में एक डबरी (तालाब) बनाई गई है, जिसमें बारिश का पानी बहकर आता और भरता है और साल भर सुरक्षित रहता है. बंदरों के उत्पात से मुक्ति पाने के लिए श्री केडिया ने पांच डाबरमेन कुत्ते पाल रखे हैं, जिनके कारण बंदर बगीचे से दूर ही रहते हैं.

दिसंबर में बौर, जून में फसल तैयार

श्री केडिया बताते हैं, दिसंबर माह में आम के पेड़ों पर बौर आने शुरू हो जाता हैं और जून के पहले सप्ताह तक आम ही फसल तैयार हो जाती है. इसके बाद इसे तोड़कर और पैक कर मार्केट में उतारा जाता है. आम की ज्यादातर खेप उत्तरप्रदेश के शहरों में भेजी जाती है. वहां की तुलना में यहां आम की फसल एक महीने पहले ही तैयार हो जाती है. इसलिए वहां बेचने पर मुनाफा ज्यादा होता है. इलाहाबाद, बनारस, कानपुर जैसे शहरों में आम बिकने के लिए जाते हैं. बौर लगने और आम की तोड़ाई के बीच कई बार आंधी-तूफान और बारिश होती है. इससे फसल गिरकर खराब होती है. इस पर श्री केडिया कहते हैं ‘आम के पेड़ भी कुदरत की देन हैं. अगर आंधी-तूफन से आम नहीं गिरेंगे तो हो सकता है फल के भार से डालियां ही टूट जाएं.’

हापुस के स्वाद के सभी दीवाने

बगीचे में 1400 विभिन्न प्रजातियों के आम के वृक्ष हैं जिनमें से ‘हापुस’ का स्वाद और मीठापन अपूर्व है. उनके बाग का ‘लंगड़ा’ आम मई माह की शुरुआत में तैयार होकर बनारस पहुंच जाता है, जबकि बनारस में उसकी फसल जून के आखिर में आकर शेष भारत में जाती है. इनके अलावा दशेरी, बंबईय्या, आम्रपाली आदि अनेक मनभावन आमों की भरपूर फसल होती है. आम के वृक्षों के अतिरिक्त चीकू के 110, अमरूद के 450, मुनगा के 500, नारियल के 62, काजू के 90, आंवला के 140 पेड़ हैं. बगीचे में 550 नीम, 400 बांस और 700 नीलगिरी के वृक्ष भी अपनी हरियाली बिखेर रहे हैं.

(यह कहानी, बिलासपुर के वरिष्ठ पत्रकार प्राण चड्ढा व साहित्यकार द्वारिका प्रसाद अग्रवाल के विशेष सहयोग से)

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