छेरछेरा : छत्तीसगढ़ की उद्दात लोक परंपरा

पीयूष कुमार/

छेरछेरा छत्तीसगढ़ का स्थानीय त्योहार है. यह परम्परा दान से जुड़ी है. यहां दान याचक और दाता के भाव का नहीं है, बल्कि जो अपने पास है, वह बांटने की भावना से पूरित है. छत्तीसगढ़ में ‘छेरछेरा’ के आरंभ को लेकर रतनपुर के राजा कल्याण साय की लोककथा बहुप्रचलित है. इसके अनुसार, कल्याणसाय मुगल शासक जहांगीर के दरबार में आठ साल तक रहे थे. जहां से उन्होंने राजनीति और युद्ध कला की शिक्षा ली. जब वे रतनपुर लौटे तो उनके आने की खुशी में जनता ने उत्सव मनाया. इस अवसर पर रानी फुलकैना ने पति के आने की खुशी में सोने व चांदी के सिक्के दान किये. इसके बाद राजा कल्याण साय ने हर साल पौष पूर्णिमा के दिन इसी तरह त्यौहार मनाने का निश्चय किया. दान की यह परंपरा लोक में अन्नदान के रूप में व्यवहृत हुआ और छेरछेरा कहलाया.

इधर छेरछेरा को लेकर एक नया संदर्भ डॉ. अनिल भतपहरी से मिला है. उन्होंने लिखा है कि बौद्ध धम्म के महायान का महापर्व श्रेय: श्रेया: पर्व को छत्तीसगढ़ में ‘छेरछेरा’ कहते हैं. राजकुमार सिद्धार्थ बुद्धत्व प्राप्ति (वैसाख पूर्णिमा) के बाद पौष पूर्णिमा को भिक्षाटन करते दान लिए और दाता को ‘श्रेय: श्रेया:’ कह उनकी मंगलकामनाएं की. उन्हें स्मृत करने यह महापर्व का आयोजन विगत ढाई हजार वर्षों से अनवरत चला आ रहा है. इस पर्व में सभी दान लेने और देने वाले परस्पर एक दूसरे की मंगल कामनाएं करते हैं. यह समानता स्थापित करने तथा जाने अनजाने में अभिमान/दर्प हरण का महापर्व है.

तस्वीर : साभार गूगल

दक्षिण कौशल (छत्तीसगढ़) की राजधानी सिरपुर महायान शाखा का प्रमुख केंद्र था. यहां उसके प्रवर्तक नागार्जुन व आनंद प्रभु द्वारा संचालित विश्वविद्यालय से प्रतिवर्ष प्रबुद्ध वर्ग निकल कर समाज को संचालित किया करते थे. आज भी सिरपुर के इर्द-गिर्द बसे जनमानस छेरछेरा के दिन सिरपुर जाकर उन आश्रय चैत्य विहार मठ मंदिरों के प्रस्तर प्रतिमाओं में कच्चा चावल समर्पित कर अपनी दानवृत्ति को प्रदर्शित करते श्रेयवान हो कृतार्थ होते हैं.

छेरछेरा मूलरूप से लोक का त्योहार है. ऐसे में यह संभावना अधिक है कि इसको तत्कालीन श्रमण संस्कृतियों ने आत्मसात कर लिया होगा. लोक परंपराएं इसी तरह स्थापित होती चली जाती हैं. छेरछेरा का यह त्योहार हर वर्ष पौष पूर्णिमा (पूस पुन्नी) को मनाया जाता है. छत्तीसगढ़ में इस दिन बच्चे झोला/टोकरी थामे घर-घर जाते हैं और द्वार पर पुकार लगाते हैं…
छेर छेरा….
माई कोठी के धान ल हेर… हेरा…!
अरन बरन कोदो झरन…
जभे देबे… तभे टरन…!!

घर के लोग आते हैं और सस्नेह उनके झोले में अनाज डालते हैं. आज घरों में खीर और फरा बनेगा. यह त्यौहार उदारता का, सहअस्तित्व, समानता और सबके लिए बांटने का प्रतीक है. पूस का महीना है, फसल खेतों से घरों में आ चुकी है, भण्डार भरा हुआ है. ऐसे में समाज और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता स्वरुप यह सहर्ष दिया जाता है.

छत्तीसगढी साहित्यकार मुकुंद कौशल का एक लोकप्रिय गीत है, ‘धर ले कुदारी गा किसान’. इसकी दो पंक्तियंहैं, ‘करपा के भारा भारा बांट लेबो रे…आज डिपरा ल खन के डबरा पाट देबो रे…’ इन पंक्तियों में भी इसी छेरछेरा की उद्दात्तता है. कवि ने लिखा है कि करपा के भारा अर्थात धान की फसल का बीड़ा हम आपस मे बांट लेंगे, हम असमानता को दूर करने के लिए टीले को खोदकर गड्ढे को पाट देंगे. यह भाव महान है. यह भाव छत्तीसगढ़ की धरती की पहचान है जिसका छेरछेरा एक अच्छा उदाहरण है.

तस्वीर : पीयूष कुमार

दुर्ग से प्रोफेसर जयप्रकाश बताते हैं कि ‘छेरछेरा के संदर्भ में मैंने एक बात सुन रखी है. इस दिन प्रत्येक घर से इकट्ठा किए गए चावल को मिलाकर उसे ‘बिजहा’ के रूप में सुरक्षित रखा जाता था और आने वाले साल में किसी एक खेत में उसे छिड़क दिया जाता था. उससे जो फसल उपजती थी, उसमें क्रॉस पॉलिनेशन के चलते धान की अपेक्षाकृत उन्नत नस्ल विकसित होती थी. यह देसी किस्म की जेनेटिक इंजीनियरिंग थी. यही काम आजकल प्रयोगशालाओं में होता है.’

इस उदाहरण में हम पाते हैं कि छत्तीसगढ़ में धान के उत्तम बीज विकसित करने की पुरानी परंपरा अनुभवजन्य वैज्ञानिकता से उपजी है. यहां एक तथ्य जाहिर करना उल्लेखनीय होगा कि रायपुर के कृषि विश्वविद्यालय में लगभग 23 हजार धान की किस्में विकसित कर संरक्षित की गई हैं जो कि विश्व में सबसे ज्यादा है. यह स्पष्ट है कि छेरछेरा और उन्नत बीजों के संरक्षण का यह सम्बन्ध एक महत्वपूर्ण पक्ष है.

छेरछेरा की परंपरा बस्तर में भी उल्लास के साथ प्रचलित है. थान अब विदा ले रही है. ऐसे में शाम ढलते पूनम का चांद निकलता है और गलियों में स्थानीय भाषा हल्बी में घर-घर में बच्चों की आवाज आने लगती है-
‘झिरलिटी- झिरलिटी पंडकी मारा लिटी…
डोकरी-डोकरा झगड़ा होली…चाब दिला लिटी
आओ डोकरी छोडाय ला…तोला देबो रोटी
रोटी पीठा के काय करुआय, बड़े बाप चो बेटी…
छेर… छेरा…!!’

यह विनोदपूर्ण कथन है. इससे वातावरण सहज हास्य से भर जाता है और बच्चों को अन्न हार्दिक प्रसनन्ता से दिया जाता है. इस दौरान ‘नकटा नकटी’ का स्वांग भी किया है. छेरछेरा को छत्तीसगढ़ के उत्तरी हिस्से सरगुजा में छेरता कहते हैं. छत्तीसगढ़ में छेरछेरा मांगने के तरीके भिन्न क्षेत्रों में भिन्न हो सकते हैं पर मूल भाव वही है.

छत्तीसगढ़ का यह स्थानीय त्योहार कहता है कि हम सब उदार बनें. सदय बनें, देने वाले हाथ को खुला रखें. छीजते जाते समय और आत्मकेंद्रित होते समाज में छेरछेरा के उद्दात्त भाव की अब और अधिक आवश्यकता है.

(लेखक शासकीय महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं. उनसे मोबाइल नंबर 88390-72306 पर संपर्क किया जा सकता है.)
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