एक थे फूफा : लोक चरित का आख्यान

पीयूष कुमार/

लोक में एक विशेष चरित्र हमेशा रहा है जो किसी रिश्ते के नाम से समाज में चर्चित रहता है. यह जगत मामा, भैया, कका, बबा या फूफा आदि रूपों में अपने आसपास को प्रभावित किये रहता है. इसी तरह एक चरित्र साकार हुआ है राहुल सिंह जी की नई पुस्तक ‘एक थे फूफा’ में. यह छत्तीसगढ़ी लोक की पृष्ठभूमि में एक चरित कथा है जो हमारे जीवन मे रचा पगा है.

पुस्तक का कमाल है कि फूफा की यह विस्तृत कथा राहुल जी ने 32 पृष्ठों में ही कह दी है. यह कथा ठस बीड़ी की तरह है, सुलगाने पर मीठ और गुरतुर. किताब में फूफा के छोटे छोटे किस्से शीर्षकवार हैं- ‘बाजन लागे अनंद बधाई, जेवन का जेवनी तो डेरी…, पुरेनहा तालाब की झिथरी, फिदा, किस्मत और नोनीबाई, बीड़ी जलई ले, माई के पेट मे पच्चिस पिला, बिड़ी पिअय मिजाजी, बिड़ी पचीसी, तोते का पिंजरा, पिंजरे में जीव. इन शीर्षकों से छत्तीसगढ़ी लोक के सामाजिक आचार-व्यवहार, परंपरा और तत्कालीन रुचि, चलन के इतिहास का पता चलता है.

फूफा एक अक्खड़ सा चरित्र है जो कुछ तार्किक है, धार्मिक नहीं है पर लोक देवताओं पर कुछ भरोसा करता है. शौकीन भी जबर है, जिसकी धोती का कलकतिया ब्रांड ‘लैंडलॉर्ड’ था जिनके सामने तत्कालीन लोकल ब्रांड ‘सच्चा नीलम’ और ‘परमसुख’ शमार्ते थे. अपनी दाढ़ी बनाने को लेकर चिंतक बन चुके फूफा को जेवनी (दाएं) और डेरी (बाएं) को लेकर हमेशा असमंजस रहता है. फूफा अपनी जवानी में प्रचलित भुतहा किस्सों को साकार करने तालाब में कूदकर गांव की लड़कियों को डराता है. वहीं जाड़ में आगी बार के बच्चों को भूत परेत के किस्से सुनाता है.

नाचा के शौकीन फूफा की बिड़ी को लेकर लेखक ने बड़ा ही ठेठ, विश्वसनीय और जीवंत वर्णन किया है. देखें- बिड़ी की नोक आहिस्ते से चबाए और होठों में सावधान किंतु सहज पकड़ बनाए, जिससे बिड़ी लार से गीली न हो जाये. बिड़ी होठों के किनारे अक्सर बाएं, लटकी सी रहती, फिर भी सुरक्षित रहती, कभी गिरी नहीं. बिड़ी के आखिरी सिरे को दांत से थोड़ा सा काटते तो पता लगता कि फूफा अब गहरा कश लेकर अधिक धुआं गटककर, गंभीर चिंतन के लिए मन बना रहे हैं. बिड़ी का पुडा, अद्धा, कट्टा, उसपर लगा लाल धागा, उसकी कसाई, कट्टे की मथाई, ठोका ठाकी. फिर उसका वर्गीकरण ठस, पोच्ची, फर्जी के रूप में करना. इस प्रक्रिया में सामाजिक मनोविज्ञान और व्यवहार का अत्यंत सूक्ष्म और रोचक वर्णन है. फूफा के जीवन का पटाक्षेप बिड़ी और मिट्ठू के रूपक में दार्शनिकता और कारुणिकता से होता है. यह टैगोर की कहानी ‘द बनयन ट्री’ के क्लाइमेक्स की याद दिलाता है.

फूफा का यह किस्सा लेखक के स्वभाविक चिंतन, दर्शन, गूढ़ता और विस्तार से स्तरीय बन पड़ा है. स्थानीय शब्दों की मिश्री जगह जगह घुलती जाती है और लगता है कि इसे किसी छत्तीसगढ़िया ने ही लिखा है. किताब का बड़ा आकर्षण फूफा के किस्सों के समानांतर रागिनी लतिका के रेखांकन का होना है. यह किस्सागोई को जीवंत करता है. यह कृति 60 के दशक के छत्तीसगढ़ी लोक का दस्तावेज है. इसे पढ़ना कउड़ा के घेरा बनाकर फूफा जैसे किसी किस्सागो के गोठ को सुनना और भावलोक में रसमस हो जाना है.

अपने विशेष प्रस्तुतिकरण में आई मात्र 20 रुपए की इस किताब की एक और विशेषता है कि इससे प्राप्त समस्त आय ‘जीवनदीप’ जो आम लोगों को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने वाली स्वयंसेवी संस्था है, उसके लिए होगी. किताब वैभव प्रकाशन, रायपुर में मोबाइल नंबर 9425358748 पर सम्पर्क करके प्राप्त कर सकते हैं.

 

– पीयूष कुमार छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले के शासकीय महाविद्यालय रामचंद्रपुर में सहायक प्राध्यापक के पद पर पदस्थ हैं.
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