रायपुर षड़यंत्र केस: अपने ही साथी की गद्दारी से पकड़े गए आंदोलनकारी परसराम सोनी

आशीष सिंह/

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पन्नों पर आंदोलनकारी सेनानियों के त्याग, तपस्या और बलिदान की गाथा जितने दमकते अक्षरों में अंकित है, उतने ही स्याह हर्फों में गद्दारों की कुटिल कथा भी लिखी गई है. हर युग में पृथ्वीराज चौहान को जयचंदों से धोखा मिला है. ऐसी ही एक घटना 15 जुलाई 1942 को रायपुर में घटी, जब अपने की साथी ही गद्दारी की वजह से आंदोलनकारी परसराम सोनी गिरफ्तार कर लिए गए.

उस दिन सुबह 10 बजे उनका मित्र शिवनंदन उन्हें बुलाने पहुंचा. सोनी जी उसकी सायकल में बैठकर गोलबाजार स्थिति गिरिलाल के घर पहुंचे. गिरिलाल प्रभुलाल बीड़ी वाले के बाड़े में किराये से रहते थे. परसराम ने उनसे रिवाल्वर और तीन कारतूस लिए और शिवनंदन के साथ लौट गए. सोनी जी ने सायकल चला रहे शिवनंदन से लखेर लाइन से चलने को कहा पर उसने सायकल एडवर्ड रोड की ओर मोड़ दिया. जैसे ही सायकल सदर बाजार रोड पहुंची त्यों ही शिवनंदन ने घंटी बजाई. घंटी बजते ही केंद्रीय सीआईडी के इंस्पेक्टर नरेंद्र सिन्हा, अंग्रेज डीएसपी और सिटी इंस्पेक्टर परसराम पर टूट पड़े. तलाशी में रिवाल्वर बरामद हो गया. परसराम समझ गए शिवनन्दन ने गद्दारी कर दी है. फिर भी पुष्टि करने के लिए कोतवाली में उन्होंने उसके कान में बताया कि मोड़ के पास नाली में कारतूस फेंक दिया है. थोड़ी ही देर में कारतूस भी बरामद हो गए. अब परसराम के मन में कोई संदेह नहीं रह गया था. सोनी जी की गिरफ्तारी को सदर बाजार में सफदर अली अपनी दुकान से देख रहे थे. वे जानते थे कि सोनी जी का मेलजोल गिरिलाल से है. उन्होंने तुरंत ही इसकी सूचना उन्हें दे दी.

रिवाल्वर बनाने में थे उस्ताद

देशभक्ति का जज्बा तो बचपन से ही परसराम सोनी के मन में था. वे वानर सेना के सक्रिय सदस्य थे. ठा. प्यारेलाल सिंह, मौलाना रऊफ और भूतनाथ बैनर्जी के भाषणों से वे बहुत प्रभावित थे. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा रायपुर के पूर्व सांसद स्व. केयूर भूषण के मुताबिक, भूतनाथ बैनर्जी नागपुर षड़यंत्र केस में 6 साल की सजा काट आए थे. 1939 में वे क्रांतिकारी कवि राजनांदगाव के कुंजबिहारी चौबे के संपर्क में आए. कुंजबिहारी चौबे के पिता छबिलाल चौबे के पास 32 बोर की रिवाल्वर थी. किसी तरह उनसे परसराम ने वह रिवाल्वर प्राप्त कर ली और उसकी नकल कर हू-ब-हू दूसरी रिवाल्वर तैयार कर ली. कई प्रयासों के बाद उनके बनाए रिवाल्वर ने सफलता प्राप्त कर ली. चौबेजी को उनकी अमानत लौटा दी गई. इसी समय उनका संपर्क गिरिलाल से हुआ. वे मुंगेर से रायपुर आकर बंदूक सुधारने का काम करते थे. गिरिलाल के संबंध चटगांव के क्रांतिकारियों से थे. गिरिलाल और सोनी जी समान विचारधारा के थे. वे आरएमई वर्क्स और रायपुर फ्लोर मिल के कारीगरों से सामग्रियां हासिल करते और परसराम के घर पर ही रिवाल्वर तैयार करते.

बम बनाने की कला भी सीखी

डॉ. विपिनबिहारी सूर और उनके भाई निखिलभूषण सूर से परसराम सोनी को रसायन शास्त्र की एक ऐसी किताब मिल गई जिसमें बम और विस्फोटक बनाने की विधि थी. वे बम बनाने की कला भी सीख गए. संयोग से उन्हीं दिनों उनकी मुलाकात ईश्वर सिंह परिहार से हो गई. उन्होंने उनसे पिकरिक एसिड से बम बनाने का हुनर सीख लिया. विस्फोटक बनाने के काम आने वाली सामग्रियां ठाकुर ज्ञान सिंह अग्निवंशी अपने एंग्लो वनार्कूलर स्कूल की प्रयोगशाला से और होरीलाल सीपी मेडिकल स्टोर्स से उपलब्ध कराने लगे. जल्द ही सोनी जी टाइम बम, पोजिशन बम और स्मोक बम बनाने में दक्ष हो गए.

ईदगाह और रावणभाठा में बमों का परीक्षण

ईदगाहभाठा और रावणभाठा के निर्जन स्थलों में बमों का परीक्षण किया जाता. ऐसे ही एक मौके पर ईदगाहभाठा में वे बम का परीक्षण कर रहे थे. जिस वक्त धमाका हुआ ठीक उसी वक्त राजकुमार कालेज के प्रिंसिपल की कार वहां से गुजरी. संभवत: उन्होंने पुलिस को इसकी सूचना दे दी. परीक्षण के समय सोनी जी के साथ कभी श्यामसुंदर अग्रवाल, कभी गोपाल राव तो कभी गोविंदलाल अवधिया रहते थे. धीरे-धीरे परसराम का दल बढ़ने लगा. मालवीय रोड का ओरिएंटल होटल क्रांंतिकारियों का मिलन स्थल था. वहा कुंजबिहारी चौबे, दशरथलाल चौबे, प्रेम वासनिक, सुधीर मुखर्जी, क्रांतिकुमार भारतीय एकत्र होते. महासमुंद के खेदू पोद्दार, देवीकांत और कृष्णराव थिटे भी दल में शामिल थे.

पुलिस को पत्रों में मिले साथियों के नाम

परसराम सोनी बहुत सावधान रहते थे. कोई भी संदिग्ध वस्तु ज्यादा समय तक एक ठिकाने में नहीं रखते थे. वे इतनी गोपनीयता बरतते थे कि रोज मिलने वाले ओरिएंटल होटल के उनके साथियों को भी एक-दूसरे के विषय में जानकारी नहीं थी कि वे सभी एक ही मकसद से काम कर रहे हैं. गिरफ्तारी के बाद परसराम सोनी के घर की तलाशी हुई मगर कुछ भी आपत्तिजनक वस्तु नहीं मिली. एक दिन पहले ही वे सारी चीजें होरीलाल के पास वे रखवा गए थे. उनकी गिरफ्तारी से सतर्क होकर होरीलाल ने वस्तुएं अन्यत्र हटा दिया. तलाशी के दौरान कुछ पत्रों में उनके साथियों के नाम-पते मिले. इसके आधार पर उनकी धर-पकड़ शुरू हो गई. प्रेम वासनिक पुलिस का गवाह बन गया. गिरिलाल, डॉ. सूर और मंगल मिस्त्री भी गिरफ्तार कर लिए गए. दूसरे दिन कुंजबिहारी और दशरथ लाल चौबे, सुधीर मुखर्जी, देवीकांत झा, होरीलाल, सुरेंद्रनाथ दास, क्रांतिकुमार भारतीय, कृष्णाराव थिटे, सीताराम मिस्त्री, समर सिंह और भूपेंद्रनाथ मुखर्जी भी पकड़े गए और सलाखों के पीछे पहुंच गए. नौ माह तक एडीएम जेडी केरावाला की अदालत में भारतीय रक्षा अधिनियम, आर्म्स एक्ट और एक्सप्लोसिव सब्सटेंस एक्ट के तहत मामला चला.

सरकार को नहीं मिले वकील

अभियुक्तों की ओर से रायपुर के तमाम दिग्गज वकीलों एम. भादुड़ी, पी. भादुड़ी, चांदोरकर, पेंढारकर, अहमद अली, बेनीप्रसाद तिवारी और चुन्नीलाल अग्रवाल ने पैरवी की. शासन की ओर से मुकदमा लड़ने शहर का कोई वकील तैयार नहीं हुआ. तब बाहर से वकील बुलाए गए. अंग्रेज आर्म्स एक्सपर्ट तो यह मानने के लिए ही तैयार नहीं था कि रिवाल्वर ‘हेंड मेड’ है. उसने परसराम की ‘कारीगरी’ की भरे कोर्ट में तारीफ की.

दस लोगों को सुनाई गई सजा

शिवनंदन के अलावा समर सिंह भी सरकारी गवाह बन गया. कमजोर साक्ष्यों के आधार पर भी सजा सुनाई गई. 27 अप्रैल 1943 को गिरिलाल को 8 वर्ष, परसराम सोनी को 7, भूपेंद्रनाथ मुखर्जी को 3, क्रांतिकुमार और सुधीर मुखर्जी को दो-दो साल, दशरथलाल चौबे, देवीकांत झा, सुरेंद्रनाथ दास को एक-एक वर्ष की सजा सुनाई गई. मंगल मिस्त्री को नौ, और कृष्णराव थिटे को छ: माह की कठोर सजा हुई. कुंजबिहारी चौबे तथा सूर बंधुओं पर दोष सिद्ध नहीं हो पाया. पर डॉ. सूर को डीआईआर के तहत जेल में ही रखा गया. रणवीर सिंह शास्त्री उस वक्त गुरुकुल कांगड़ी में अध्ययन कर रहे थे. अत: उनकी गिरफ्तारी नहीं हुई.

जयदेव कपूर ने की थी रिहाई की मांग

सजा के खिलाफ नागपुर हाईकोर्ट में अपील दायर की गई. जस्टिस नियोगी ने भूपेंद्रनाथ मुखर्जी, सुधीर मुखर्जी, कृष्णराव थिटे और देवीकांत झा को बरी कर दिया. परसराम सोनी ने अपील करने से इंकार कर दिया था. मई 1946 में भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी जयदेव कपूर रायपुर आए. गांधी चौक की सभा में उन्होंने परसराम सोनी की रिहाई की मांग की. सजा काट कर रिहा हो चुके क्रांतिकुमार भारतीय और सुधीर मुखर्जी ने नागपुर जाकर मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल से परसराम और गिरिलाल की रिहाई की अपील की. 26 जून 1946 को वे दोनों रिहा कर दिए गए. शिवनन्दन की गद्दारी से रायपुर में सशस्त्र क्रांति की भू्रण हत्या हो गई. अन्यथा रायपुर का इतिहास कुछ अलग ही होता. यह मामला इतिहास में रायपुर षड़यंत्र केस के नाम से प्रसिद्ध है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व इतिहास अध्येता हैं)
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