शिवकुमार दीपक और मनु नायक से देखा है राजेश खन्ना के शुरुआती दिनों का संघर्ष

मुहम्मद जाकिर हुसैन/

फिल्मी दुनिया में सुपर स्टार का दर्जा पाने वाले राजेश खन्ना को हम सबके बीच से गुजरे अब 9 साल पूरे हो चुके हैं. फिल्मी दुनिया और राजनीति में राजेश खन्ना के योगदान को लेकर हमेशा चर्चा होती रहेगी. आज उनकी पुण्यतिथि पर ऐसे दो लोगों के संस्मरण, जिन्होंने राजेश खन्ना का संघर्ष बेहद करीब से देखा है. संयोग से दोनों हस्तियां छत्तीसगढ़ की और हमारे आस-पास की हैं.

वयोवृद्ध अभिनेता शिवकुमार दीपक भी उन दिनों भिलाई स्टील प्लांट की नौकरी में रहते हुए मुंबई जाकर अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे थे, जब राजेश खन्ना का संघर्ष का दौर चल रहा था. दुर्ग पोटियाकला निवासी और अब 90 साल के हो चुके दीपक याद करते हुए बताते हैं कि-तब पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘कहि देबे संदेस’ रिलीज हो चुकी थी और उन्हें थोड़ी पहचान भी मिल गई थी. ‘कहि देबे संदेस’ में मुख्य किरदार निभाने वाले अभिनेता कान मोहन इसके पहले 1958 में रिलीज हुई सिंधी फिल्म ‘अबाना’ के सुपरहिट होने की वजह से फिल्म जगत का एक परिचित चेहरा थे.

दीपक कहते हैं-‘कहि देबे संदेस’ के दौरान कान मोहन से हुआ परिचय दोस्ती में बदल गया और बाद में हम दोनों ने एक साथ दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘घरद्वार’ में भी काम किया. यही वह दौर था, जब मुझे मुंबई में भी काम मिल रहा था. अपनी पहचान बनाने मैं भिलाई स्टील प्लांट की नौकरी से छुट्टी लेकर मुंबई जाया करता था और वहां मेरा ठिकाना था कान मोहन का निवास. दीपक बताते हैं-कान मोहन मूल रूप से थियेटर से जुड़े थे और उनके साथ राजेश खन्ना और कादर खान भी थियेटर करते थे. तब राजेश खन्ना को हम लोग जतिन खन्ना के नाम से जानते थे. दीपक के मुताबिक-तब कई बार कान मोहन के घर पर राजेश खन्ना और कादर खान के साथ हम लोगों की बैठकी होती थी.

उन दिनों राजेश खन्ना फिल्मों में काम के लिए खूब हाथ-पैर मार रहे थे. उन्होंने कान मोहन के माध्यम से भी कई जगह कोशिश की. बड़ी मुश्किल से उन्हें चेतन आनंद की ‘आखिरी खत’ मिली. दीपक बताते हैं-संभवत: ‘आखिरी खत’ के लिए राजेश खन्ना को स्क्रीन टेस्ट देने जाना था. इसके पहले वह बेहद परेशान थे. तब राजेश खन्ना स्क्रीन टेस्ट से पहले दो दिन तक कान मोहन और मुझे लेकर मुंबई के बाजार की खाक छानते रहे. उन्हें अपनी पसंद के मुताबिक कपड़े, बेल्ट और जूते नहीं मिल रहे थे. इससे राजेश खन्ना थोड़े मायूस भी थे. आखिरकार कान मोहन की पसंद पर उन्होंने कपड़े, बेल्ट और जूते लिए और फिर स्क्रीन टेस्ट के लिए गए. लौटने के बाद अपनी पहली फिल्म मिलने की खुशी उन्होंने हम लोगों के साथ भी बांटी थी. दीपक कहते हैं तब राजेश खन्ना का उत्साह देखते बनता था. उन्हें हर वक्त धुन लगी रहती थी कि किसी बड़े बैनर में उन्हे एक मौका मिल जाए. हालांकि उनका संघर्ष अगले 2-3 साल में रंग लाया और फिर आगे उन्होंने सफलता का इतिहास रच दिया.

संघर्ष के बाद सफलता मिली लेकिन गलत सलाह देने वाले भी उनके साथ साये की तरह रहे: मनु नायक

पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘कहि देबे संदेस’ बनाने वाले निर्माता-निर्देशक मनु नायक मुंबई के फिल्म जगत में 1956 से मौजूद हैं और उन्होंने बहुत से स्थापित लोगों का संघर्ष करीब से देखा है. राजेश खन्ना का जिक्र निकलते ही मनु नायक थोड़ी तल्खी के मूड में आ जाते हैं. मुंबई से फोन पर बात करते हुए नायक कहते हैं-राजेश खन्ना का संघर्ष रंग लाया लेकिन उनके आस-पास के कई लोगों ने गलत सलाह देकर उन्हें गर्त की ओर भी ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. नायक एक ऐसे ही प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहते हैं-शायद 1957 की बात है. तब उनकी फिल्म ‘बहारों के सपने’ की डबिंग रंजीत स्टूडियो में चल रही थी. मैं भी वहीं कुछ दूसरे काम से मौजूद था. राजेश खन्ना तब अपने कुछ दोस्तों के साथ वहां पहुंचे. इस दौरान काम पूरा कर जब राजेश खन्ना बाहर निकले तो उनके साथ आए लोगों ने अभिनय सम्राट का नाम बेहद खीझ के साथ लेकर उकसाते हुए कहा कि-क्यों न अब अगली फिल्म में उन्हें नीचा दिखाया जाए…? हालांकि राजेश खन्ना सिर्फ मुस्कुरा के रह गए लेकिन मुझे और वहां मौजूद कई लोगों को बेहद बुरा लगा.

नायक बताते हैं कि उन दिनों वह सुविख्यात निर्माता-निर्देशक महेश कौल के संस्थान अनुपम चित्र में मैनेजर हो गए थे और फिल्मी दुनिया में अच्छी पहचान भी बन गई थी. ऐसे में कई बार राजेश खन्ना के सेक्रेट्री आते थे और उन्हें फिल्म दिलाने के लिए कोशिश करते थे. उन दिनों राजेश खन्ना रंगमंच में भी सक्रिय थे इसलिए कई बार उनके सेक्रेट्री या उनके खेमे से आने वाले लोग पास लेकर आते थे जिससे कि फिल्म निर्माण से जुड़े लोग उनका थियेटर देख कर उनके भविष्य के बारे में सोचें. नायक कहते हैं-पहले रंगमंच के सहारे राजेश खन्ना फिल्मों में आए लेकिन जैसे ही उनका नाम चल निकला तो रंगमंच वालों ने भी उनका नाम खूब भुनाया. बाद के दौर में नाटकों में राजेश खन्ना के लिए खास भूमिकाएं रखी जाने लगीं. इसी कड़ी में उन्हें राजेश खन्ना का एक नाटक ‘अंडर सेक्रेट्री’ याद आ रहा है, जिसे देखने वह भी गए थे. नायक कहते हैं-राजेश खन्ना व्यक्तिगत रूप से बहुत अच्छे इंसान थे और कलाकार भी उम्दा ही थे लेकिन सफलता के साथ उनसे कुछ गलत फैसले करवाने में उनके आसपास के लोगों का ज्यादा हाथ रहा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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