भुवाल सिंह/
अपूर्व बड़गैया निर्देशित ‘चमनबहार’ की कहानी छत्तीसगढ़ के लोरमी कस्बे के युवक बिल्लू के इर्द गिर्द घूमती है. बिल्लू पहचान के संकट से गुजर रहा है. अपनी पहचान बनाने के लिए वह वन विभाग की चौकीदारी छोड़कर दिनेश की मदद से लोरमी रोड पर ‘चमन बहार’ नाम से पानठेला खोलता है. कथा के केंद्र में रिंकू नामक लड़की है जो फिल्म में लगभग न के बराबर बोलते हुए भी फिल्म की असल गति है. रिंकू के पिता इंजीनियर हैं और लोरमी में नए-नए शिफ़्ट हुए हैं. इंजीनियर का आवास ठीक पानठेला के सामने है. मुंगेली जिला बनने के बाद लोरमी का बाजार गड़बड़ा गया है और इससे सबसे ज्यादा प्रभावित चमनबहार पानठेला है. लेकिन इंजीनियर साहब के आने के बाद यानी रिंकू की उपस्थिति से यह वीरान पान की दुकान चल निकली है.
यहीं से कथानक में गति आती है. पान की दुकान की रंगीनी रिंकू की उपस्थिति से लालिमा धारण कर लेती है. लोरमी के व्यापारी पुत्र आशु और स्थानीय नेता पुत्र शीला की दिलचस्पी भी पान की दुकान में रिंकू को एक नजर देख लेने की है.
अब फिल्म को एक पाठ की तरह देखते हैं. यह फिल्म जीवन के एकाकी, मां की ममता से वंचित एक युवा की कहानी है. इस युवक को प्रेम की तलाश है. पिता शराब पीता है. बिल्लू बचपन में डीएफओ की बेटे की तरह हैप्पी बर्थ-डे मनाने का शौक रखता है. उसके पिता इन्हीं सब जिद्द की वजह से बिल्लू को साहब के घर नहीं ले जाते. बचपन जीवन का एक ऐसा दौर है जिसमें वह दुनिया को समान दृष्टि से देखता है. उसे साहब और चपरासी का अंतर पता नहीं होता. बचपन मनुष्य मात्र को समान देखने की सर्जनात्मक नजर का नाम है. बिल्लू की इस नजर का उसके पिता के लिए भी मायने है पर वह मजबूर है. बचपन की उम्मीदें अब युवा काल में रूप बदलने लगती है. पिता के जिद्द में बिल्लू वन विभाग की चौकीदारी स्वीकार कर लेता है. पर वह इसे अपनी इच्छा के विरुद्ध मानकर पहचान बनाने की सोचता है और पिता के विरुद्ध जाकर पान की दुकान खोल लेता है.
चमनबहार का दर्शक होने के लिए प्रेमी मन का होना बेहद जरूरी है. जो भी दर्शक अपने जवानी की रंगीनियत को मन में न मारकर जीवन में उतारा होगा. जवानी को शिद्दत से जिया होगा. अपने सपनों की राजकुमारी के बारे में न सिर्फ सोचा होगा बल्कि उसे पाने के लिए जीवंत प्रयत्न किया होगा वह ‘चमनबहार’ से निकलने वाली आग और उसकी ठंडक को महसूस कर सकता है. प्रेम अग्नि है तो जलधार भी. बिल्लू का पूरा प्रयास चाहे वह शीला और आशु के दबंग रूप के सामने भी अपने प्रेम को बचा पाने की सोच हो या दोनों हंसोड़ डैडी के कैरम क्लब को ध्वस्त करवाने की. अंग्रेजी शिक्षक के प्रति रोष हो या डीएफओ के बिच्छू छाप जैकेट पहनने वाले बेटे को पान ठेले से हटाने की. हर जगह बिल्लू अपनी सहज बुद्धि से यह कहते दिखता है- ‘मोहब्बत और जंग में सब जायज है!’
हर वह स्थल जहां रिंकू को एक नजर भी देखने का अवसर मिल जाय बिल्लू नहीं छोड़ना चाहता. यह अवसर वह किसी भी कीमत पर सामूहिक नहीं बनने देने की बलवती इच्छा रखता है. इसीलिए कई अवसर पर जब रिंकू अपने कुत्ते रुबी को घुमाने ले जाती है तब बिल्लू हर तरह से यह प्रयास करता है कि बाकी युवकों का मुख उनके तरफ रहें ताकि वह अकेला रिंकू को निहार सके. प्रेम का सबसे बड़ा मूल्य एकांत का वैभव है. प्रेमी और प्रेमपात्र के अलावा कोई तीसरा नहीं.
‘चमनबहार’ फिल्म के हीरो बिल्लू से लेकर स्कूली छात्र, आशु, शीला, दोनों डैडी और अनाम लड़के की आंतरिक बनावट और उमंग उन्हें एक धरातल प्रदान करती है. वह धरातल है-प्रेम की तलाश. इन्हें आप आवारा कहें…लफंगा कहें या कोई और सम्बोधन, लेकिन हम सब जीवन के सबसे खूबसूरत एहसास के दौर में चमनबहार के भाव से गुजरते हैं. जो नहीं गुजरे वे अभागे हैं या झूठे. फिल्म में रिंकू जब-जब इंट्री करती है तब मुझे आलोक धन्वा के शब्द दिखाई देते हैं-
अब भी
छतों पर आती हैं लड़कियां
मेरी जिÞंदगी पर पड़ती हैं उनकी परछाइयां
गो कि लड़कियां आयी हैं उन लड़कों के लिए
जो नीचे गलियों में ताश खेल रहे हैं
नाले के ऊपर बनी सीढियों पर और
फुटपाथ के खुले चायखानों की बेंचों पर
चाय पी रहे हैं
उस लड़के को घेर कर
जो बहुत मीठा बजा रहा है माउथ आॅर्गन पर
आवारा और श्री 420 की अमर धुनें
पत्रिकाओं की एक जमीन पर बिछी दुकान
सामने खड़े-खड़े कुछ नौजवान अखबार भी पढ़ रहे हैं.
उनमें सभी छात्र नहीं हैं
कुछ बेरोजगार हैं और कुछ नौकरीपेशा,
और कुछ लफंगे भी
लेकिन उन सभी के खून में
इंतजार है एक लड़की का!
उन्हें उम्मीद है उन घरों और उन छतों से
किसी शाम प्यार आयेगा!
प्रेम के आ जाने का इंतजार इस फिल्म को विश्वसनीय बनाता है.
स्थानीय राजनीति की दबंगई शीला के चरित्र को आगे बढ़ाती है. हर स्थिति को वे अपनी मां के साथ मिलकर अवसर में बदलना जानता है. आशु व्यापारी है, लेकिन उसकी भी पृष्ठभूमि में राजनीति है. दोनों डैडी अभाव में भी जीवन के मजे लेना जानते हैं. बिल्लू का पिता दुनियादार बुद्धि का मालिक है. वह अपने एक संवाद में प्रशासनिक तंत्र का राज खोलता है. बिल्लू पूछता है क्या फूट डालो और राज करो की नीति प्रासंगिक है. तब उनके पिता कहते हैं- कान भरो और राज करो. प्रशासनिक अमले के पदसोपान के हर स्तर पर यह वाक्य सच दिखता है. प्रामाणिकता और सहजता के लिहाज से बिल्लू के पिता का कोई जवाब नहीं. ये सभी पात्र मानवीय हैं. अनेक पात्रों के साथ दोनों डैडी भाचा, तनतन, पगले, बे साले जैसे बिलासपुरिया हिंदी में छत्तीसगढ़ी के फ़्यूजन को अपने चरित्र में दर्शाते हैं. छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत की बानगी के साथ रॉक का फ़्यूजन युवा मन के उमंग को बेहतरीन ढंग से प्रगट करता है.
प्रेम के लिए हर रास्ता अपनाने के लिए तैयार बिल्लू की पान की दुकान और उसके व्यक्तित्व को इलाके का थानेदार पीटकर रौंद देता है. बेदम पिटाई के बाद कोई बिल्लू को कोई भी आवारा और समाज विरोधी चरित्र कह सकता है. उसे लड़की के इज्जत को नोटों पर लिखकर बेचने वाला कहकर गालियां दे सकता है, बावजूद यह सब विश्वसनीय लगता है क्योंकि वह प्रेम में है. भले ही हम इस प्रेम को एकतरफा कह दें. लेकिन दिल लगाने के लिए कोई नियमावली और अधिकार तंत्र थोड़े ही है. दिल का मामला नैसर्गिक है.
बिल्लू को इंजीनियर साहब जेल से निकलवाता है. बिल्लू कृतज्ञता ज्ञापित करने इंजीनियर के घर जाता है. वहां दो मार्मिक घटनाएं दृश्य रूप में घटित होती है. प्रथम बिल्लू ध्यान से इंजीनियर साहब और उसके परिवारजनों की तस्वीरों को देखता है. इन तस्वीरों में मां, पिता, भाई, बहन पूरा भरा- पूरा परिवार है. आगे एक फोटो रिंकू की दिखती है. इस दृश्य में सहज बुद्धि वाला दर्शक भी महसूस करेगा कि बिल्लू के मन में प्रेम का अभाव है. इसका एक रूप मां है तो दूसरा प्रेमिका है.
दूसरा दृश्य वह है जिसमें रिंकू परदे के पीछे से बिल्लू को समभाव से देख रही है. ऐसा महसूस होता है कि बिल्लू के प्रति उसके मन में प्रेम का उदय हो चुका है. रिंकू चाय लेकर आती है और बिल्लू के सामने रख देती है. बिल्लू पश्चाताप से सिर नीचे कर लेता है. वह रिंकू की प्रिय चॉकलेट डेरी मिल्क टेबल में रखकर हारे हुए सिपाही की तरह बाहर की तरफ भागता है. सड़क पर आने के बाद उसकी मुखाकृति और शारीरिक हाव-भाव प्रेम की असफलता को दर्शाते हैं. माहौल पूरी तरह से दर्द से भर उठता है. यह दृश्य फिल्म की जान है जो कस्बाई युवक की ईमानदारी और उसके निश्चल पश्चताप को प्रकट करता है. यह फिल्म यथार्थवादी रूप का परिचायक है.
फिल्म में बिल्लू का जीवन यहां उजाड़ से भरा महसूस होने लगता है. फिल्म में हीरोइन लोरमी छोड़ चुकी है और दर्शक को लगता है कोई सकारात्मक हो तो बात बनें. कोई अति उत्साही लेखक और निर्देशक होता तो हीरो को बिलासपुर पहुंचा कर मिलन करवा देता. गाना बज उठता और हीरो-हीरोइन के मिलन समारोह में नृत्य भी हो जाता. लेकिन इसी पाइंट पर अपूर्व की दक्षता दिखाई देती है जो अपूर्व है.
रिंकू के चले जाने के बाद बिल्लू एक बार फिर खाली पड़े बंगले में जाता है. तेज हवा के बीच एक पेज उड़ते हुए आता है जिसके अगले भाग में विषय संबंधी चित्र होता है. अब फिल्म का क्लाइमेक्स आता है जब पेज के पिछले हिस्से में बिल्लू सहित पान ठेले का स्केच बना होता है. ये स्केच ही फिल्म की आत्मा है. रिंकू कुछ नहीं कहती…लेकिन स्केच सब कुछ कह देता है. प्रेम पर यकीन करते हैं तो फिल्म को अवश्य देखिए. नफरत के इस खौफानाक दौर में आपको अच्छा लगेगा.
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